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मेरी जीवनगाथा
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वह बोली 'यहाँ तो जितने छात्र हैं सब मांसभोजी हैं। यदि आपको परीक्षा करनी हो तो बगलकी कोठरीमें देख सकते हो। यहाँ पर उसके बिना गुजारा नहीं।' मैंने मन ही मन विचार किया कि 'हे भगवन् ! किस आपत्तिमें आ गये ?' दाल चावल बनाना भूल गया और यह विचार मनमें आया कि 'तेरा यहाँ गुजारा नहीं हो सकता, अतः यहाँसे कलकत्ता चलो। वहाँ पर श्रीमान पण्डित ठाकुरप्रसादजी व्याकरणाचार्य हैं। उन्हींसे अध्ययन करना। उनसे तुम्हारा परिचय भी है।
उस दिन भोजन नहीं किया गया। दो घंटा बाद गाड़ीमें बैठकर कलकत्ता चले गये। यहाँ पर पण्डित कलाधरजी पद्मावती-पुरवाल थे। उनके पास ठहर गये और फिर श्री पण्डित ठाकुरप्रसादजीसे मिले। उन्होंने संस्कृत कालेजमें नाम लिखा दिया तथा एक बंगाली विद्वान्से मिला दिया। मैं उनसे न्यायशास्त्रका अध्ययन करने लगा।
यहाँ पर श्री सेठ पद्मराज जी राणीवाले थे। मन्दिरमें उनसे परिचय हुआ। वे हमारे पास न्यायदीपिका पढ़ने लगे और उन्होंने अपने रसोईघरमें भोजनका प्रबन्ध कर दिया। मैं निश्चिन्त होकर पढ़ने लगा।
उन्हीं दिनों वहाँ पर बाबा अर्जुनदास जी पण्डित, जिनकी आयु ८० वर्षकी होगी, रहते थे। वे गोम्मटसार और समयसारके अपूर्व विद्वान् थे। उस समय कलकत्तामें धर्मशास्त्रकी चर्चाका अतिशय प्रचार था। पं. गुलझारीलालजी लमेचू तथा अन्य कई महाशय अच्छे-अच्छे तत्त्ववेत्ता थे। प्रातःकाल सभामें १०० महाशयसे ऊपर आते थे। यहाँ सुखपूर्वक काल जाने लगा। ६ मासके बाद चित्तमें उद्वेग हुआ, जिससे फिर बनारस चला आया। और श्री शास्त्रीजीसे अध्ययन करने लगा। इन्हींके द्वारा ३ खण्ड न्यायाचार्यके पास किये, परन्तु फिर उद्वेग हुआ और कार्यवश बाईजीके पास आ गया। बाईजीने कहा-'बेटा तुम्हें ६ खण्ड पास करने थे, पर तुम्हारी इच्छा।'
बाबा शिवलालजी और बाबा दौलतरामजी मैं कारणवश ललितपुर गया था, यहाँ पर रथयात्रा थी। उसमें श्री बालचन्द्रजी सवालनवीस सागरनिवासी आये थे। ये धर्मशास्त्रके अच्छे ज्ञाता थे, संस्कृत भी कुछ जानते थे। ये उच्चकोटिके सवालनवीस थे। जिस अर्जीदावाको ये लिखते थे उसे अच्छे-अच्छे वकील और बैरिस्टर भी मान लेते थे। इतना होने पर भी इनका नित्य प्रति दो घण्टा स्वाध्याय होता था। इनके
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