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________________ नवद्वीप, कलकत्ता फिर बनारस 121 हो गये। परस्परमें एक दूसरेके मुख ताकने लगे। कई तो अपने कृत्यको निन्द्य मानने लगे और यहाँ तक कहने लगे कि 'जो शास्त्र हिंसादि कार्योंकी पुष्टि करता है वह शास्त्र नहीं, शस्त्र है। नहीं-नहीं, शस्त्र तो एक ही का घात करता है पर ये शास्त्र तो असंख्य प्राणियोंका घात करते हैं। इन शास्त्रोंकी श्रद्धासे आज भारतवर्षमें जो अनर्थ हो रहे हैं वे अतिवाक् है-वचन अगोचर हैं। हमारे कार्य देखकर ही यवन लोगोंको यह कहनेका अवसर आता है कि 'आपके यहाँ बकरा आदिकी बलि होती है, हम लोग गाय आदिकी कुर्वानी करते हैं। धर्म दयामय है यह आप नहीं कह सकते, क्योंकि जिस शास्त्रमें यह लिखा है कि-'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' उसी शास्त्रमें देवता और अतिथिके लिये हिंसा करना धर्म बतलाया है....... | ऐसे परस्पर विरोधी वाक्य जहाँ पाये जावें उसे आगमशास्त्र मानना सर्वथा अनुचित है।' यह सुनकर कितने ही उपस्थित विद्वानोंने कहनेवालेको खूब धिक्कारा और कहा कि तू शास्त्रके मर्मको नहीं जानता। मैंने सोचा कि यह संसार है, इसमें अपने-अपने मोहोदयके अनुसार लोगोंके विचारोंमें तारतम्य होना स्वाभाविक ही है, अतः किससे क्या कहें ? अस्तु, बात तो यहीं रही, यहाँ जो गिरिधर शर्मा रहते थे और जिनके साथ मेरा अत्यन्त प्रेम हो गया था, उन्होंने एक दिन कहा कि 'तुम यहाँ व्यर्थ ही क्यों समय यापन करते हो ? नवद्वीपको चलो। वहाँ पर न्यायशास्त्रकी अपूर्व पठनशैली है। जो ज्ञान यहाँ एक वर्षमें होगा वह वहाँ सहवासमें एक मासमें ही हो जायेगा। मैं उनके वचनोंकी कुशलतासे चकौती ग्राम छोड़कर नवद्वीप चला गया। नवद्वीप, कलकत्ता फिर बनारस __ जिस दिन नवद्वीप पहुँचा, उस दिन वहाँ पर छुट्टी थी। लोग अपने-अपने स्थानों पर भोजन बना रहे थे। मुझे भी कोठरी दे दी गई और गिरधर शर्माने एक कहारिनसे कहा कि 'इनका चौका लगा दे। तथा बनियेके यहाँसे दाल, चावल आदि जो कहें सो ला दे।' मैं स्नान कर और णमोकारमंत्रकी माला फेर कर भोजनकी कोठरीमें गया। कहारिनने चूला सिलगा दिया था, मैंने पानी छानकर बटलोई चूल्हे पर चढ़ा दी, उसमें दाल डाल दी, एक बटलोईमें चावल चढ़ा दिया। कहारिन पूछती है-'महाशय शाक भी बनाओगे?' मैंने कहा-'अच्छा मटरकी फली लाओ। वह बोली-'मछली भी लाऊँ ?' मैं तो सुनकर अवाक रह गया। पश्चात् उसे डाँटा कि 'यह क्या कहती है ? हम लोग निरामिषभोजी हैं।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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