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________________ मेरी जीवनगाथा 120 प्रभो ! मैं अधम-से-अधम नर हूँ। मैंने जो पाप किये हैं, हे परमात्मन् ! अब उन्हें कौन क्षमा कर सकता है ? जन्मान्तरमें भोगना ही पड़ेंगे, परन्तु अब आपके समक्ष प्रतिज्ञा करता हूँ कि आजसे किसी प्राणीको न सताऊँगा। जो कुछ कर चुका उसका पश्चात्ताप करता हूँ। उस दिनसे न तो मेरे घरमें मांस पकता है और न मेरे बाल-बच्चे ही मांस खाते हैं। मेरे जो खेत हैं उनमें इतना धान पैदा होता है कि उससे मेरा वर्ष भरका खर्च आनन्दसे चल जाता है। मैं नीच जाति हूँ। आप लोग मेरा स्पर्श करनेसे डरते हैं। यदि कदाचित् स्पर्श हो भी जावे तब सचेल स्नान करते हैं, परन्तु बताओ तो सही, हमारे शरीरमें कौनसी अपवित्रताका वास है और आपके शरीरमें कौनसी पवित्रताका निवास है ? सच पूछो तो आप लोगोंके पेटमें ३ सेर मछली जाती है जो हिंसासे मारी जाती है, पर मैं सात्त्विक भोजन करता हूँ जिससे किसीको कुछ भी कष्ट नहीं होता। आपकी अपेक्षा मेरा शरीर अपवित्र नहीं, क्योंकि आपका शरीर मांससे पोषा जाता है और मेरा शरीर केवल चावल दालसे तुष्ट होता है। यदि इसमें आपको सन्देह हो तो किसी डॉक्टर या वैद्यसे परीक्षा करा लीजिये। मैं जोर देकर कहता हूँ कि मेरा शरीर आप लोगोंके शरीरकी अपेक्षा उत्तम होगा। रही आत्माकी बात सो आपकी आत्मा दयासे शून्य है, हिंसासे भरी है, लोभादि पापोंकी खान है, विषयोंसे कलुषित है। इसके विपरीत हमारी आत्मा दयासे पुष्ट है, लोभादि पापोंसे सुरक्षित है और यथाशक्ति परमात्माके स्मरणमें भी उपयुक्त है। अब आप लोग ही निर्णय करके शुद्ध हृदयसे कहिये कि कौन तो अधम है और कौन उच्च ? आप लोगोंने ज्ञानका अर्जन कर केवल संसारवर्द्धक विषयोंकी पुष्टि की है। यदि आप लोग संसारके दुःखोंसे भयभीत होते तो इतने अनर्थपूर्ण कार्योंकी पुष्टि न आप करते और न शास्त्रोंके प्रमाण ही देते ‘पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या औषधार्थं सुरां पिवेत् ।' मैं पढ़ा लिखा नहीं, परन्तु यह वाक्य आपके ही द्वारा मुझे श्रवणमें आया है। कहाँ तक कहें स्त्रीदान तक आप लोगोंने शास्त्रविहित मान लिया। इत्यादि कहते-कहते अन्तमें उसने बड़े उच्च स्वरसे यहाँ तक कह दिया यद्यपि मैं आप लोगोंकी दृष्टिमें तुच्छ हूँ तो भी हिंसाके उक्त कार्योंको अच्छा नहीं समझता । अब मैं जाता हूँ। मैंने कहा-'अच्छा बाबा जाइये। उसके चले जानेपर मैंने यह विचार किया कि यदि सत्य भावसे विचार किया जावे तो उसका कहना अक्षरशः सत्य है। जितने विद्वान् वहाँ उपस्थित थे सब निरुत्तर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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