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________________ नीच जाति पर उच्च विचार Jain Education International 119 I ज्योतिषी लोग गरीबोंकी जन्मपत्रीका पैसा नहीं लेते थे, ग्राममें २० छात्र पढ़ते थे, जिन्हें घर-घर भोजन मिलता था । किसीके आमके बगीचामें चले जाइये । पेट भर आम खाइये और १० आम अलहदा घरके बालकोंको ले जाइये । किसीके ईखके खेत पर पन्थीगण बिना रस पिये नहीं जा सकता था । यदि कोई बाहरका आदमी सायंकाल घर पर ठहर गया तो भोजन कराये बिना उसे नहीं जाने देते थे। यदि कोई भोजन करनेसे इनकार करता था तो उसे ठहरने नहीं दिया जाता था ........ । यह व्यवस्था इस ग्रामकी थी, पर आज देखो तो यहींके पण्डितगण बाहर जाकर विद्या पढ़ानेकी नौकरी करने लगे, चाहे ग्रामके बालक निरक्षर रहें । वैद्योंकी दशा देखिये - रोगीके घरमें चाहे खानेको न हो, परन्तु उन्हें फीसका रुपया होना ही चाहिये । यही हाल इन ज्योतिषी पण्डितोंका है। जमींदारोंको देखिये और मनुष्योंकी कथा छोड़िये । मनुष्यकी बात दूर रही। अब चिड़िया आदि पक्षी भी इनका आम नहीं खा सकते। यहाँकी ऐसी व्यवस्थाके कारण ही भारतवर्ष जैसा सुखी देश विपद्ग्रस्त हो रहा है। आज भारतवर्षकी जो दशा है वह किसीसे छिपी नहीं है, अतः माफ कीजिये, मैं आपको दवा नहीं बताऊँगा और न आपसे कुछ चाहता ही हूँ। हमारा काम मजदूरी करनेका है। उसमें जो कुछ मिल जाता है उसीसे सन्तोष कर लेता हूँ। सूखा दाल-भात हमारा भोजन है। शाम तक परमात्मा दे ही देता है । आपसे दस रुपया लेकर मैं लालाजी नहीं बनना चाहता। आप जीते हैं और हम भी जीते हैं। ये जो आपके पास बैठे हैं सब अच्छे किसान हैं, परन्तु इन्हें दयाका लेश नहीं । जैसा फोड़ा आपको हुआ था वैसा यदि इन्हें या इनकी सन्तानको होता तो न जाने कितनी पशुहत्या हो जाती । इनका यही काम रह गया है कि जहाँ घरमें बीमारी हुई कि देवीको बकरा चढ़ानेका संकल्प कर लिया । मैं जातिका मुसहड़ हूँ और मेरे कुलमें निरन्तर हिंसा होती है । परन्तु मैंने ५ वर्षसे हिंसा त्याग दी है। इसका कारण यह हुआ कि मैं एक दिन शिकारके लिए धनुष बाण लेकर वनमें गया था । पहुँचते ही एक बाण हिरनीको मारा, वह गिर पड़ी। मैंने जाकर उसे जीवित ही पकड़ लिया । वह बाणसे मरी नहीं थी । घर जाकर मैंने विचार किया कि आज इसे मारकर सब कुटुम्ब पेटभर इसका मांस खावेंगे। हम लोग जब उसे मारने लगे तब उसके पेटसे बिलबिलाता हुआ बच्चा निकल पड़ा और थोड़ी देरके बाद छटपटा कर मर गया। उनकी वेदना देखकर मैं अत्यन्त दुःखी हो गया और भगवान् से प्रार्थना करने लगा कि हे | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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