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मेरी जीवनगाथा
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'केचिद्वदन्त्यमृतमस्ति सुरालयेषु केचिद्वदन्ति बनिताधरपल्लवेषु । ब्रूमो वयं सकलशास्त्रविचारदक्षा
जम्बीरनीरपरिपूरितमांसखण्डे।।' इस प्रकार मांसभक्षकोंने संसारमें नाना अनर्थ फैलाये हैं, जिनके मांसका भोजन है उनके दयाका लेश नहीं। देखो, जो पशु मांस खाते हैं वे महान् निर्दयी होते हैं। उनसे प्राणीगण सदा भयभीत रहते हैं। पर जो मांस नहीं खाते उनसे किसीको भय नहीं लगता। सिंहके सामने अच्छे-से-अच्छे बलिष्ठ पेशाब कर देते हैं। इसका कारण यही तो है कि वह हमारा मांस-भक्षण । करनेवाला हिंसक प्राणी है। हाथी, घोड़ा, गाय, ऊँट आदि वनस्पति खाने वाले जीव हैं, अतः इन्हें देखकर किसीको भय नहीं होता। अतः जिस मांसके खानेसे क्रूर परिणाम हो उसे त्याग देना ही उचित है। देखो, आपके सामने जो गणेशप्रसाद खड़े हैं, यह जैनी हैं, इनका भोजन अन्न है, अपना ग्राम इतना बड़ा है, यहाँ पर १००० ब्राह्मणोंका निवास है, ब्राह्मणों का ही नहीं, पण्डितोंका निवास है, जो देखो वहीं इनकी प्रशंसा करता है, सब लोग यही कहते हैं कि यह बड़ा सौम्य छात्र है, उसका मूल कारण इसकी दयालुता है। मुझे जाना है अन्यथा इस विषय पर बड़ी मीमांसाकी आवश्यकता थी।
द्रौपदीका व्याख्यान पूर्ण नहीं हुआ था कि बीचमें ही बहुतसे नर-नारी हँस पड़े और यह शब्द सुननेमें आने लगा कि 'नौसौ मूसे विनाश कर बिल्ली हज्जको चली।' यह वाक्य सुनते ही द्रौपदीने कहा कि ठीक है, परन्तु अब मैं पापिनी नहीं । यदि तुम लोगोंको विश्वास न हो तो हमारे बागमें जो फल पक्के हों उन्हें चुनकर लाओ, सब ही अमृतोपम स्वादिष्ट होंगे तथा मेरी पुष्करिणीका जल गंगाजलके सदृश होगा।
कई मनुष्य एकदम बाग और पुष्करिणीकी ओर दौड़ पड़े। जो बाग गये थे वहाँसे विल्वफल, लीची और आम लाये तथा जो पुष्करिणी गये थे वे चार घड़े जल लाये। सब समुदायने फलभक्षण किये। सभीके मुखसे ये शब्द निकल पड़े कि ऐसे स्वादिष्ट फल तो हमने जन्मसे लेकर आज तक नहीं खाये । पश्चात् पुष्करिणीका जल पिया गया और सर्वत्र यह ध्वनि होने लगी कि यह तो गंगाजलकी अपेक्षा भी मधुर है।
अनन्तर जनसमुदायने उसे मस्तक नवाकर प्रणाम किया और अपने अपराधकी क्षमा माँगी। द्रौपदीने आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह सब हमारे
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