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________________ द्रौपदी 115 भी मैं इस मनुष्यके द्वारा पाप पंकमें लिप्त हो गई। इस घटनासे मुझे यह निश्चय हुआ कि आत्मा सर्वथा निर्दोष नहीं। यदि सर्वथा निर्दोष होता तो मैं इस तरह पाप पंकमें अनुलिप्त क्यों होती ? यद्यपि आत्मा न मरता है, न जीता है, यह गीतामें लिखा है, पर वह ग्रन्थकारकी एक विवक्षा है। आत्मा जनमता भी है और मरता भी है, यदि ऐसा न होता तो कोई पशु है, कोई मनुष्य है और कोई देवता है, यह सब क्यों होता ? तथा पुराणोंमें जो लिखा है कि सच्चा काम करोगे, शिवलोक जाओगे, बुरे काम करोगे, पाताललोक जाओगे, यह सब गप्पाष्टक होता, पर यह गप्पाष्टक नहीं है। आत्मा यदि-दोषभाक न होता तो ऋषियोंने प्रायश्चित्तशास्त्र व्यर्थ ही बनाया। इन सब बातोंको देखते हुए मेरे आत्मामें यह निश्चय हो गया कि आत्मा पापी भी होता है और उसका उदाहरण मैं ही हूँ। अब मेरी आप नर-नारियोंसे यह प्रार्थना है कि कभी भी पाप न करना। पापसे मेरा यह अभिप्राय है कि स्त्रीलोगोंको यह नियम करना चाहिये कि अपने पति को छोड़ अन्य पुरुषोंको पिता, पुत्र और भाईके सदृश समझें और पुरुषवर्गको चाहिये कि वह स्वस्त्रीको छोड़कर अन्य स्त्रियोंको माता, भगिनी और पुत्रीके सदृश समझे । अन्यथा जो मेरी दुर्गति और निन्दा हुई वही आपकी होगी। देखो, श्रीरामचन्द्रजी महाराजने बालीको मारा तब बाली कहता __ मैं बैरी सुग्रीव प्यारा। कारण कवन नाथ मोहि मारा।। उत्तरमें श्रीरामचन्द्रजी महाराज कहते हैं- . __ अनुज-वधू भगिनी सुत-नारी। सुनु शठ ये कन्या सम चारी।। इनहि कुदृष्ट करै जो कोई। ताहि बधे कछु दोष न होई ।। यह कथा रामायणमें प्रसिद्ध है। इसलिये आजसे सब नर-नारी इस व्रतको लेकर घर जावें। इसे न लेनेसे आपका कल्याण नहीं। इसके सिवाय एक बात और कहना चाहती हूँ, वह यह कि भगवान् दीनदयालु हैं, उनकी दया प्राणीमात्रके ऊपर होनी चाहिये। पशु भी एक प्राणी है। उन्होंने ऐसा कौनसा अपराध किया कि उन निरपराधोंका दुर्गादेवीके सामने बलि चढ़ाया जाता है। जिसका नाम जगदम्बा है उसे उसीका पुत्र मारकर दिया जावे, यह घोर पाप है, जो कि हम लोगोंमें आ गया है और इसीसे हमारी जातिमें प्रतिदिन शान्तिका अभाव होता जाता है। देखो, इनकी विचारधारा कहाँ तक दूषित हो गई। एकने तो यहाँ तक अनर्थ किया कि जिसे कहती हुई मैं कम्पायमान हो जाती हूँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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