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मेरी जीवनगाथा
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वैद्यनाथजीको जल चढ़ाऊँगी और जिस समय ‘ओं शिवाय नमः' कहती हुई जल चढ़ाऊँगी उसी समय महादेवजीके कैलाशलोकको चली जाऊँगी।'
द्रौपदीकी यह बात सुनकर उसके पिता बहुत ही प्रसन्न हुए और गद्गद् स्वरमें बोले-'बेटी मैं तुम्हारी कथा सुनकर अत्यन्त प्रमोदको प्राप्त हुआ हूँ। मैं आस्तिक हूँ, अतः यह मानता हूँ कि ऐसा होना असम्भव नहीं। ऐसे अनेक उपाख्यान शास्त्रोंमें आते हैं जिनमें भयंकर पाप करनेवालोंका भी उसी जन्ममें उद्धार होना लिखा है। अच्छा, यह बताओ कि यात्रा कब करोगी?' पुत्रीने कहा-वैशाख सुदि पूर्णिमाके दिन यात्राके लिये जाऊँगी। अब क्या था, सम्पूर्ण नगरके लोग उस दिनकी प्रतीक्षा करने लगे। बहुतसे स्त्री पुरुष भक्तिसे प्रेरित हो यात्राकी तैयारी करने लगे और कितने ही कौतुक देखनेकी उत्सुकतासे यात्राके लिये चेष्टा करने लगे। सभीके मनमें इस बातका कौतुक था कि जिसने आजन्म पाप किये हैं वह भला शिवलोकको सिधारे ? बहुत कहनेसे क्या लाभ ? अन्तमें वैशाखकी पूर्णिमा आ गई। प्रातःकाल ६ बजे यात्राका मुहूर्त था। गाजेबाजेके साथ द्रौपदी घरसे बाहर निकली। ग्राम भरके नर-नारी उसे पहुँचानेके लिये ग्रामके बाहर आधा मील तक चले गये।
द्रौपदीने समस्त नार-नारियोंसे सम्बोधन कर प्रार्थना की और कहा कि 'मैंने गुरुतर पाप किये-कामके वशीभूत होकर यहाँपर जो अनुग्रह झा खड़ा है इसके साथ गुप्त पाप किये, सहस्रों रुपये इसे खिलाये, ५ बार भ्रूणहत्यायें भी की। अपने द्वारा किये हुए पापोंकी याद आते ही मेरी आत्मा सिहर उठती है। परन्तु आजसे २० दिन पहले मुझे अपनी आत्मामें बहुत ग्लानि हुई और यह विचार मनमें आया कि जो आत्मा पाप करनेमें समर्थ है वह उसे त्याग भी कर सकता है। यह कोई नियम नहीं कि जो आज पापी है वह सर्वदा पापी ही बना रहे। यदि ऐसा होता है तो कभी किसीका उद्धार भी नहीं हो पाता। आत्मा निमित्त पाकर पापी हो जाता है और निमित्त पाकर पुण्यात्मा भी बन सकता है। हमारा आत्मा इन विषयोंके वशीभूत होकर निरन्तर अनर्थ करनेमें ही तत्पर रहा, अन्यथा यह इस प्रकार दुर्गतिका पात्र नहीं होता। मैं एक कुलीन कुलमें उत्पन्न हुई, मेरा बाल्यकाल बड़ी ही पवित्रतासे बीता, मैंने विष्णुसहस्रनाम आदि स्तोत्र पढ़े और उसका पाठ भी किया, मेरे पिताने मुझे गीताका भी अध्ययन कराया था, मैं उसका भी पाठ करती थी, गीतापाठसे मेरी यह श्रद्धा हो गई थी कि आत्मा अजर अमर है, निर्दोष है, अनादि-अनन्त है। परन्तु यह सब होते हुए
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