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चकौती में
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पुरुषार्थका फल है कि खुरईमें श्री पार्श्वनाथ गुरुकुलकी स्थापना हो गई।
यद्यपि हमारे बुन्देलखण्ड प्रान्तमें धनाढ्योंकी कमी नहीं है पर यह सच है कि यहाँ धनाढ्य विद्वानोंको अपनाना नहीं जानते, अन्यथा क्या आप खुरईमें निवास कर इस प्रान्तका उपकार नहीं करते? वैसे तो आपने इस प्रान्तका बहुत कुछ उपकार किया ही है-देवगढ़ रथका निर्विघ्न होना आपके ही पुरुषार्थका फल है, परवारसभाका उत्थान आपके ही उपदेशोंके द्वारा हुआ है और अभी जबलपुरमें जिस गुरुकुलका कार्यक्रम चल रहा है उसके अधिष्ठाता भी आप ही हैं। आप अपने बालकोंके पठनादिकी व्यवस्थाके लिए इन्दौर रहते हैं और सर सेठ साहबके दरबारकी शोभा बढ़ा रहे हैं।
इसी प्रकार समाजके प्रमुख विद्वान् और धर्मशास्त्रके अद्वितीय मर्मज्ञ पं. वंशीधरजी न्यायालंकार भी, जो कि महरौनी के रहनेवाले हैं, सर सेठ साहबके दरबारकी शोभा बढ़ा रहे हैं। हमारे प्रान्तमें यदि कोई उदार प्रकृतिका धनाढ्य होता तो उक्त दोनों विद्वानोंको अपने प्रान्तसे बाहर नहीं जाने देता और ये इसी प्रान्तका गौरव बढ़ाते। चूँकि इस प्रान्तके ही अन्नजलसे इन लोगोंका बाल्यकाल पल्लवित हुआ है, अतः इस प्रान्तके भाइयोंका भी. आपके ऊपर अधिकार है और उसका उपकार करना इनका कर्तव्य है।
_इनके यहाँ रहनेमें दो ही कारण हो सकते हैं या तो कोई सर सेठ साहबकी तरह उदार प्रकृतिका हो या ये निरपेक्ष वृत्ति धारण कर स्वयं उदार बन जावें। मेरी तो धारणा है कि 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी इस सिद्धान्तानुसार सम्भव है कि इन दोनों महानुभावोंके चित्तमें हमारे प्रान्तके प्रति करुणा भाव उत्पन्न हो जावे और उस दशामें हम तो स्वयं इन दोनोंको इस प्रान्तके श्रीमन्त समझने लगेंगे। विशेष क्या लिखू ? यह प्रासंगिक बात आ
गई।
चकौतीमें संवत् १६८४ की बात है-बनारससे मैं श्रीशान्तिलाल नैयायिकके साथ चकौती जिला दरभंगा चला गया और वहीं पर पढ़ने लगा। जिस चकौतीमें मैं रहता था वह ब्राह्मणोंकी बस्ती थी, अन्य लोग कम थे, जो थे वे इन्हींके सेवक
थे।
इस ग्राममें बड़े-बड़े नैयायिक विद्वान् हो गये हैं। उस समय भी वहाँ चार नैयायिक, दो ज्योतिषी, दो वैयाकरण और छब्बीस धर्मशास्त्रके प्रसिद्ध विद्वान् थे। इन नैयायिकोंमें सहदेव झा भी एक थे। वह बड़े बुद्धिमान् थे। इनके
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