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________________ मेरी जीवनगाथा 110 न्यायशास्त्रके विद्वान् हैं।' सामने बुलाकर बोले-'अच्छा शान्ति ! यह तो बताओ कि न्याय किसे कहते हैं। आध घण्टा पिता-पुत्रका शास्त्रार्थ हुआ पर पिताके समक्ष शान्तिलाल न्यायका लक्षण बतानेमें असमर्थ रहे। पाठकगण ! यहाँ यह नहीं समझना कि शान्तिलाल विद्वान् न थे, परन्तु वृद्ध पिताके समक्ष अवाक् रह गये। इसका यह तात्पर्य है कि दुलारझा ने ४० वर्षकी अवस्था तक नवद्वीपमें अध्ययन किया था। वृद्ध बाबा बड़े निर्भीक थे। उनका कहना था कि मैं न्यायशास्त्रमें बृहस्पतिसे भी नहीं डरता। अस्तु, ____ मैं शान्तिलालजीको लेकर बरुआसागर चला आया। श्रीसर्राफ मूलचन्द्रजी उन्हें ३०) मासिक देने लगे। मैं उनसे पढ़ने लगा। मैं जब यहाँके मन्दिरमें जाता था जब श्रीदेवकीनन्दनजी भी दर्शनके लिये पहुँचते थे। इनके पिता बहुत बुद्धिमान् और जातिके पञ्च थे। बहुत ही सुयोग्य व्यक्ति थे। उनका कहना था कि यह बालक बुद्धिमान् तो है। परन्तु दिनभर उपद्रव करता है, अतः इसे आप बनारस ले जाइये। मैंने देवकीनन्दनसे कहा-'क्यो भाई ! बनारस चलोगे ?' बालकने कहा-'हाँ, चलेंगे।' मैं जब उसे बनारस ले जानेके लिए राजी हो गया तब सर्राफजीने यह कहते हुए बहुत निषेध किया कि क्यों उपद्रवकी जड़ लिए जाते हो ? परन्त मैंने उनकी एक न सुनी। उन्होंने बाईजीसे भी कहा कि ये व्यर्थ ही उपद्रवकी जड़ साथ लिये जाते हैं। पर बाईजीने भी कह दिया कि 'भैया ! तुम जिसे उपद्रवी कहते हो उसके लिए पण्डितजी और महाराज कहते-कहते तुम्हारा गला न सूखे तो हमारा नाम न लेना।' __ अन्तमें मैं उसे बनारस ले गया और विद्यालयमें प्रविष्ट करा दिया। बालक होनहार था, अत: बहुत ही शीघ्र कालमें व्युत्पन्न हो गया। इसकी बुद्धिकी प्रखरता देख श्रीमान् स्वर्गीय पण्डित गोपालदासजी आगरावालोंने इसे मोरेनामें धर्मशास्त्रका अध्ययन कराया। कुछ दिन बाद ही यह धर्मशास्त्रमें विशिष्ट विद्वान् हो गया। और उसी विद्यालयमें अध्यापन कार्य करने लगा। श्रीमान स्वर्गीय पण्डितजी जहाँपर व्याख्यान देनेके लिए जाते थे वहाँ उन्हें भी साथ ले जाते थे। इनकी व्याख्यान कला देख पण्डितजी स्वयं न जाकर कहीं-कहीं इन्हींको भेज देते थे। यह व्याख्यान देनेमें इतने निपुण निकले कि समाजने इन्हें व्याख्यानवाचस्पतिकी उपाधिसे विभूषित किया। कारंजा गुरुकुलकी उन्नतिमें आपका ही प्रमुख हाथ है और यह भी आपके ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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