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बुन्देलखण्डके दो महान् विद्वान्
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वह बोला-'जिस कार्यमें देवेंगे वहाँ मोहसे ही तो देवेंगे और जहाँ देवेंगे उसका उत्तर कालमें क्या उपयोग होगा? इसका निश्चय नहीं। यदि आपको देवेंगे तो यह निश्चित है कि विद्याध्ययनमें ही मेरी सम्पत्ति जावेगी। आप ही कहें, मैं कौनसा अन्याय कर रहा हूँ ? आपको उचित है कि ५००) लेना स्वीकार करें। यदि आप न लेंगे तो मुझे शल्य रहेगी, अतः यदि आप मेरे हित हैं तो इस देय द्रव्यको स्वीकार करिये। मैं चोरीसे नहीं देता। आपको पात्र जानकर सबके सामने देता हूँ| जब मेरी बहिनने आपको पुत्रवत् पाल रक्खा है तब आप मेरे भानजे हुए। इस रिश्तेसे भी आपको लेना पड़ेगा। आशा है कि आप मेरी प्रार्थना विफल न करेंगे।
मैं कामताप्रसादके वचन श्रवण कर चुप हो गया। उन्होंने सर्राफ मूलचन्द्रजीको पत्र लिख दिया कि आपके यहाँ जो मेरे ५१०) रुपये जमा हैं वे आप गणेशप्रसादको दे देना। इसके अनन्तर हम उन्हें समाधिमरण सुनाते रहे। पश्चात् कार्यवश मैं तो बरुआसागर चला आया, पर बाईजी वहीं रहीं। तीन दिन बाद कामताप्रसादजीने सर्व परिग्रह त्याग दिया, सिर्फ एक वस्त्र न त्याग सके। अन्तमें नमस्कारमन्त्रका जाप करते-करते उनकी आयु पूर्ण हो गई।
बाईजी उनकी दाहादि क्रिया कराकर बरुआसागर आ गईं। कुछ दिन हम लोग कामताप्रसादजीके शोकमें मग्न रहे, पर अन्तमें फिर पूर्ववत् अपने कार्यमें लग गये।
बाईजीने कहा-'बेटा ! तुम्हारा पढ़ना छूट गया, इसका रंज है, अतः फिर बनारस चलो और अध्ययन प्रारम्भ कर दो। बाईजीकी आज्ञा स्वीकार कर मैं बनारस चला गया और श्रीमान शास्त्रीजीसे न्यायशास्त्रका अध्ययनकर तीन खण्ड न्यायाचार्यके पास हो गया। परन्तु सुपरिन्टेन्डेन्टसे मनोमालिन्य होनेके कारण मैं बनारस छोड़कर फिरसे टीकमगढ़ आ गया और श्रीमान् दुलार झा जी से पढ़ने लगा।
__ इसी समय उनके सुपुत्र श्रीशान्तिलाल झा, जो कि न्यायशास्त्रके प्रखर विद्वान् थे, अपने पिताके दर्शनार्थ आये। उनसे हमारा स्नेह हो गया। एक दिन वे हमसे बोले-कि 'यह तो वृद्ध हैं। अब इनकी शक्ति अध्ययन करानेमें असमर्थ है। आप हमसे न्याय पढ़ो।' यह कथा श्रीशास्त्रीजीने सुन ली। अवसर पाकर मुझसे बोले-'शान्ति क्या कहै था।' मैंने कहा-'कुछ नहीं कहते थे।' पर शास्त्रीजी तो अपने कानसे सब सुन चुके थे, बोले-'उसे अभिमान है कि हम
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