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________________ 108 मेरी जीवनगाथा त्रुटिको दूर करनेका प्रयत्न करूँगी । आपके व्यवहारसे बहुत ही प्रसन्न हूँ । आप मेरे पिता हैं, अतः एक बात मेरी भी स्वीकार करेंगे।' डाक्टर साहबने कहा-'कहो, हम उसे अवश्य पालन करेंगे।' बाईजी बोली- 'मैं और कुछ नहीं चाहती । केवल यह भिक्षा माँगती हूँ कि रविवार आपके यहाँ परमात्माकी उपासनाका दिन माना गया है, अतः उस दिन आप न तो किसी जीवको मारें, न खानेके वास्ते खानसामासे मरवायें और न खानेवालेकी अनुमोदना करें ... । आशा है मेरी प्रार्थना आप स्वीकृत करेंगे।' डाक्टर साहबने बड़ी प्रसन्नतासे कहा- हमें तुम्हारी बात मान्य है । न हम खावेंगे, न मेम साहबको खाने देवेंगे और यह बालक तो पहलेसे ही तुम्हारा हो रहा है। इसे भी हम इस नियमका पालन करावेंगे। आप निश्चिन्त रहिये। मैं आपको अपनी माताके समान मानता हूँ। अच्छा, अब फिर कभी आपके दर्शन करूँगा ।' 1 इतना कहकर डाक्टर साहब चले गये। हम लोग आधा घंटा तक डाक्टर साहबके गुण-गान करते रहे । तथा अन्तमें पुण्यके गुण गाने लगे कि अनायास ही बाईजीके नेत्र खुलनेका अवसर आ गया। किसी कविने ठीक ही तो कहा है Jain Education International 'वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा । सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।' कहनेका तात्पर्य यह है कि पुण्यके सद्भावमें, जिनकी सम्भावना नहीं, वे कार्य भी अनायास हो जाते हैं, अतः जिन जीवोंको सुखकी कामना है उन्हें पुण्य-कार्योंमें सदा उपयोग लगाना चाहिए। बुन्देलखण्डके दो महान् विद्वान् बाईजीके स्वस्थ होनेके अनन्तर हम सब लोग बरुआसागर चले गये और आनन्दसे अपना समय व्यतीत करने लगे। इतनेमें ही क्या हुआ कि कामताप्रसाद, जो कि बाईजीका भाई था, मगरपुर चला गया । वहाँसे उसका पत्र आया कि हम बीमार हैं, आप लोग जल्दी आओ । हम वहाँ पहुँचे और उसकी वैयावृत्य करने लगे। उसका हमसे गाढ़ प्रेम था। एक दिन बोला कि हम ५००) आपके फल खानेके लिए देते हैं। मैंने कहा - 'हम तो आपकी समाधि-मृत्युके लिए आये हैं। यदि इस तरह रुपये लेने लगें तो लोकमें अपवाद होगा। आप दान करें, हमसे मोह छोड़ें, मोह ही संसारमें दुःखका कारण है।' For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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