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________________ डाक्टर या सहृदयता का अवतार 107 स्पर्श अमृतका कार्य करे। वह लक्षण आज मैंने प्रत्यक्ष देख लिया, क्योंकि आपके हाथके स्पर्शसे ही मेरा नेत्र देखनेमें समर्थ हो गया। मैं आपको क्या दे सकती हूँ ?' इतना कहकर बाईजीकी आँखोंमें हर्षके अश्रु छलक पड़े और कण्ठ अवरुद्ध हो गया। डाक्टर साहब बाईजीकी कथा श्रवण कर बोले 'बाईजी ! आपके पास जो कुछ है, मैं सुन चुका हूँ। यदि ये ५००) मैं ले जाऊँ तो तुम्हारे मूलधनमें ५००) कम हो जायेंगे और ५) मासिक आपकी आयमें न्यून हो जावेंगे। इसके फलस्वरूप आपके मासिक व्ययमें त्रुटि होने लगेगी। हमारा तो डाक्टरीका पेशा है, एक धनाढ्यसे हम एक दिनमें ५००) ले लेते हैं, अतः तुम व्यर्थकी चिन्ता मत करो। किसीके कहनेसे तुम्हें भयहो गया है, पर भयकी बात नहीं। हम तुम्हारे धार्मिक नियमोंसे बहुत खुश हैं। और यह जो मेवा फलादि रखे हैं, इनमेंसे तुम्हारे आशीर्वाद रूप कुछ फल लिये लेता हूँ, शेष आपकी जो इच्छा हो सो करना तथा ११) कम्पोटरको दिये देते हैं। अब आप किसीको कुछ नहीं देना। अच्छा, अब हम जाते हैं। हाँ, यह बच्चा आप लोगोंसे बहुत हिल गया है। तुम लोगोंको खानेकी प्रक्रिया बहुत ही निर्मल है। अल्प व्ययमें ही उत्तमोत्तम भोजन आपको मिल जाता है। हमारा बच्चा तो आपके पूड़ी-पापड़से इतना खुश है कि प्रतिदिन खानसामाको डाँटता रहता है कि तू बाईजीके यहाँ जैसा स्वादिष्ट भोजन नहीं बनाता। हमारे भोजनमें ऊपरकी सफाई है परन्तु अभ्यन्तर कोई स्वच्छता नहीं। सबसे बड़ा तो यह अपराध है कि हमारे भोजनमें कई जीव मारे जाते हैं तथा जब माँस पकाया जाता है तब उसकी गन्ध आती है। परन्तु हम लोग वहाँ जाते नहीं, अतः पता नहीं लगता। तुम्हारे यहाँ जो दूध खानेकी पद्धति है वह अति उत्तम है। हम लोग मदिरापान करते हैं जो कि हमारी निरी मूर्खता है। तुम्हारे यहाँ दो आनाके दूधमें जो स्वादिष्टता और पुष्टता प्राप्त हो जाती है वह हमें २०) का मदिरा पान करने पर भी नहीं प्राप्त हो पाती। परन्तु क्या किया जावे ? हम लोगोंका देश शीत-प्रधान है, अतः वरंडी पीनेकी आदत हम लोगोंको हो गई। जो संस्कार आजन्मसे पड़े हुए हैं उनका दूर होना दुर्लभ है। अस्तु, आपकी चर्या देख मैं बहुत प्रसन्न हूँ| आप एक दिनमें तीन बार परमात्माकी आराधना करती हैं। इतना ही नहीं भोजनकी प्रक्रिया भी आपकी निर्मल है, परन्तु एक त्रुटि हमें देखनेमें आई वह यह कि जिस कपड़ेसे आपका पानी छाना जाता है वह स्वच्छ नहीं रहता तथा भोजन बनानेवालीके वस्त्र प्रायः स्वच्छ नहीं रहते और न भोजनका स्थान रसोई बनानेके स्थानसे जुदा रहता है। बाईजीने कहा-'मैं आपके द्वारा दिखलाई हुई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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