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________________ 106 मेरी जीवनगाथा न जाने उनमें क्यों आनन्द आया ? वह प्रतिदिन डाक्टर साहबके साथ आता और पूड़ी तथा पापड़ खाता । बाईजीके साथ उसकी अत्यन्त प्रीति हो गई । आते ही साथ कहने लगे -- पूड़ी - पापड़ मँगाओ।' अस्तु, सोलहवें दिन डाक्टर साहबने बाईजीसे कहा कि आपकी आँख अच्छी हो गयी । कल हम चश्मा और एक शीशीमें दवा देंगे। अब आप जहाँ जाना चाहें सानन्द जा सकती हैं। यह कह कर डाक्टर साहब चले गये। जो लोग बाईजीको देखनेके लिए आते थे वे बोले 'बाईजी ! डाक्टर साहबकी एक बारकी फीस १६) है, अतः ३२ बार के ५१२) होंगे, जो आपको देना होंगे, अन्यथा वे अदालत द्वारा वसूल कर लेवेंगे।' बाईजी बोलीं- 'यह तो तब होगा जब हम न देवेंगे।' उन्होंने गंवदू पंसारीसे, जो कि बाईजीके भाई लगते थे, कहा कि ५१२) दूकानसे भेज दो। उन्होंने ५१२) भेज दिये। फिर बजारसे ४० ) का मेवा फल आदि मँगाया और डाक्टर साहबके आनेके पहले ही सबको थालियोंमें सजाकर रख दिया। दूसरे दिन प्रातःकाल डाक्टर साहबने आकर आँखमें दवा डाली और चश्मा देते हुए कहा- 'अब तुम आज ही चली जा सकती हो।' जब बाईजीने नकद रुपयों और मेवा आदिसे सजी हुई थालियोंकी ओर संकेत किया तब उन्होंने विस्मयके साथ पूछा - 'यह सब किसलिए ? बाईजीने नम्रताके साथ कहा- 'मैं आपके सदृश महापुरुषका क्या आदर कर सकती हूँ ? पर यह तुच्छ भेंट आपको समर्पित करती हूँ । आप इसे स्वीकार करेंगे। आपने मुझे आँख दी, जिससे मेरे सम्पूर्ण कार्य निर्विघ्न समाप्त हो सकेंगे। नेत्रोंके बिना न तो मैं पठन-पाठन ही कर सकती थी और न इष्ट देवका दर्शन ही ! यह आपकी अनुकम्पाका ही परिणाम है कि मैं निरोग हो सकी। यदि आप जैसे महोपकारी महाशयका निमित्त न मिलता तो मैं आजन्म नेत्र विहीन रहती, क्योंकि मैंने नियम कर लिया था कि अब कहीं नहीं भटकना और क्षेत्रपालमें ही रहकर श्री अभिनन्दन स्वामीके स्मरण द्वारा शेष आयुको पूर्ण करना । परन्तु आपके निमित्तसे मैं पुनः धर्मध्यानके योग्य बन सकी। इसके लिए आपको जितना धन्यवाद दिया जावे उतना ही अल्प है। आप जैसे दयालु जीव बिरले ही होते हैं। मैं आपको यही आशीर्वाद देती हूँ कि आपके परिणाम इसी प्रकार निर्मल और दयालु रहें जिससे संसारका उपकार हो । हमारे शास्त्रमें वैद्यके लक्षणमें एक लक्षण यह भी कहा है कि 'पीयूषपाणि' अर्थात् जिसके हाथका I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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