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डाक्टर या सहृदयताका अवतार
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अनर्थपूर्ण वाक्योंका व्यवहार करे उसमें रोगीकी श्रद्धा कैसे हो ? इसी कारण मैने यह विचार कर लिया था कि अब परमात्माका स्मरण करके ही शेष आयु बिताऊँगी, व्यर्थ ही खेद क्यों करूँ ? जो कमाया है उसे आनन्दसे भोगना ही उचित है। सुनकर डाक्टर साहब बहुत प्रसन्न हुए। बोले-"अच्छा हम अपना दौरा केंसल करते हैं। सात बजे डाँकगाड़ीसे झाँसी जाते हैं। तुम पेसिंजर गाड़ीसे अस्पतालमें कल नौ बजे आओ, वहीं तुम्हारा इलाज होगा। बाईजीने कहा-'मैं अस्पतालमें न रहूँगी, शहरकी परवार धर्मशालामें रहूँगी और नौ बजे श्रीभगवान्का दर्शनपूजन कर आऊँगी। यदि आपकी मेरे ऊपर दया है तो मेरे प्रश्नका उत्तर दीजिये।' डाक्टर महोदय न जाने बाईजीसे कितने प्रसन्न थे। बोले-'तुम जहाँ ठहरोगी, मैं वहीं आ जाऊँगा, परन्तु आज ही झाँसी जाओ, मैं जाता हूँ।
डाक्टर साहब चले गये। हम, बाईजी और विनिया रात्रिके ११ बजेकी गाड़ीसे झाँसी पहुँच गये। प्रातःकाल शौचादिसे निवृत्त होकर धर्मशालामें आ गये। इतनेमें ही डाक्टर साहब मय सामानके आ पहुँचे। आते ही साथ उन्होंने बाईजीको बैठाया और आँखोंमें एक औजार लगाया जिससे वह खुली रहे । जब डाक्टर साहबने आँख खुली रखनेका यन्त्र लगाया तब बाईजीने कुछ सिर हिला दिया। डाक्टर साहबने एक हल्की-सी थप्पड़ बाईजीके सिरमें दे दी। न जाने बाईजी किस विचारमें निमग्न हो गईं। इतने ही डाक्टर साहबने अस्त्रसे मोतियाबिन्द निकाल कर बाहर कर दिया और पाँचों अंगुलियाँ उठाकर बाईजीके नेत्रके सामने की तथा पूछा कि बताओ कितनी अँगुलियाँ हैं ? बाईजीने कहा-'पाँच।' इस तरह दो या तीन बार पूछकर आँखमें दवाई आदि लगाई। पश्चात् सीधा पड़े रहनेकी आज्ञा दी। इसके बाद डाक्टर साहब १६ दिन और आये। प्रतिदिन दो बार आते थे। अर्थात् ३२ बार डाक्टर साहबका शुभागमन हुआ। साथमें एक कम्पोटर तथा डाक्टर साहबका एक बालक भी आता था। बालककी उमर १० वर्षके लगभग होगी। बहुत ही सुन्दर था वह।
जहाँ बाईजी लेटी थीं, उसीके सामने बाईजी तथा हम लोगोंके लिये भोजन बनता था। पहले ही दिन बालककी दृष्टि सामने भोजनके ऊपर गई। उस दिन भोजनमें पापड़ तैयार किये गये थे। बालकने ललिताबाईसे कहा-'यह क्या है ?' ललिताने बालकको पापड़ दे दिया। वह लेकर खाने लगा। ललिताने एक पूड़ी भी दे दी। उसने बड़ी प्रसन्नतासे उन दोनों वस्तुओंको खाया। उसे
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