SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मेरी जीवनगाथा 104 देनेके बाद शीघ्र ही मैं ललितपुर लौट आया। डाक्टर या सहृदयताका अवतार एक दिन बाईजी बगीचेमें सामायिकपाठ पढ़नेके अनन्तर 'राजा राणा छत्रपति हाथिनके असवार। मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार।।' आदि बारह भावना पढ़ रहीं थीं। अचानक एक अंग्रेज, जो उसी बागमें टहल रहा था, उनके पास आया और पूछने लगा-'तुम कौन हो'। बाईजीने आगन्तुक महाशयसे कहा-'पहले आप बताइये कि आप कौन हैं ? जब मुझे निश्चय हो जावेगा कि आप अमुक व्यक्ति हैं तभी मैं अपना परिचय दे सकूँगी।' आगन्तुक महाशयने कहा-'हम झाँसीकी बड़ी अस्पतालके सिविलसर्जन हैं, आँखके डाक्टर हैं और लन्दनके निवासी अंग्रेज हैं।' बाईजीने कहा-'तब मेरे परिचयसे आपको क्या लाभ ?' उसने कहा कुछ लाभ नहीं, परन्तु तुम्हारे नेत्रमें मोतियाबिन्द हो गया है। एक आँखका निकालना तो अब व्यर्थ है, क्योंकि उसके देखनेकी शक्ति नष्ट हो चुकी है। पर दूसरे आँखमें देखनेकी शक्ति है। उसका मोतियाबिन्द दूर होनेसे तुम्हें दीखने लगेगा।' ___अब बाईजीने उसे अपनी आत्मकथा सुनाई, अपनी द्रव्यकी व्यवस्था, धर्माचरणकी व्यवस्था आदि सब कुछ उसे सुना दिया और मेरी ओर इशारा कर यह भी कह दिया कि इस बालकको मैं पाल रही हूँ तथा इसे धर्मशास्त्र पढानेके लिये बनारस रखती हूँ। मैं भी वहाँ रहती थी, पर आँख खराब हो जानेसे यहाँ चली आई हूँ। उसने पूछा-'तुम्हारा निर्वाह कैसे होता है ?' बाईजीने कहा-'मेरे पास १००००) हैं, उसका १००) मासिक सूद आता है, उसीमें मेरा, लड़कीका, इसकी माँका और इस बच्चेका निर्वाह होता है। आँखके जानेसे मेरा धर्म-कार्य स्वतंत्रतासे नहीं होता।' डाक्टर महोदयने कहा-'तुम चिन्ता मत करो, हम तुम्हारी आँख अच्छी कर देगा।' बाईजीने कहा-महाशय ! मैं आपका कहना सत्य मानती हूँ, परन्तु एक बात मेरी सुन लीजिये, वह यह कि मैं एक बार झाँसीकी बड़ी अस्पतालमें गई थी। वहाँ पर एक बँगाली महाशयने मेरी आँख देखी और ५०) फीस माँगी। मैंने देना स्वीकार किया, परन्तु उन्होंने यह कहा कि 'भारतवर्षके मनुष्य बड़े बेईमान होते हैं। तुम्हारे शरीरसे तो यह प्रत्यय होता है कि तुम धनशाली हो, परन्तु कपड़े दरिद्रों कैसे पहने हो ?' मुझे उसके यह वचन तीरकी तरह चुभे। भला आप ही बतलाइये जो रोगीके साथ ऐसे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy