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बाईजीका महान् तत्त्वज्ञान
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श्री समन्तभद्र स्वामीने कहा है
'न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ।
व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत्।।' जब कि इस प्रकार वस्तुकी स्थिति है तब दुःखके समय खेद करना व्यर्थ ही है। क्या आपने श्री समयसारके कलशामें नहीं पढ़ा ?
"सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्। अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य
कुर्यात्पुमान्मरणजीवितदुःख सौख्यम् ।। सम्पूर्ण प्राणियोंके मरण, जीवन, दुःख और सुख जो कुछ भी होता है वह सब अपने कर्मविपाकसे होता है। जो मनुष्य ऐसा मानते हैं कि परसे परका मरण, जीवन, सुख और दुःख होता है वे सभी अज्ञानी हैं। भावार्थ यह है कि न तो कोई किसीका रक्षक है, न भक्षक है। तम्हारी जो यह मान्यता है कि हम सब कुछ कर सकते हैं। यह सब अज्ञानकी महिमा है। यह जीव अनादि कालसे पर्यायको ही अपना मान रहा है। जो पर्याय पाता है उसीमें निजत्व कल्पना कर अहम्बुद्धिका पात्र होता है और उसी अहम्बुद्धिसे पर पदार्थमें ममता कर लेता है। जो पदार्थ अपने अनुकूल हुए उन्हें इष्ट और जो प्रतिकूल हुए उन्हें अनिष्ट मानकर इष्ट पदार्थकी रक्षामें व्यग्र रहता है।' ..
बाईजीका तत्त्वज्ञानपूर्ण उत्तर सुनकर श्री सेठ मथुरादासजी दंग रह गये। सेठजीको उत्तर देनेके बाद बाईजी अपने स्थानपर आईं और भोजनादिसे निवृत्त होकर मध्याह्नकी सामायिकके अनन्तर मुझसे बोलीं-'बेटा ! अभी हमारा असाताका उदय है, अतः मोतियाबिन्दकी औषधि व ऑपरेशन न होगा, तुम मेरे पीछे अपना पढ़ना न छोड़ो और शीघ्र ही बनारस चले जाओ।' मैंने कहा-'बाईजी !' मुझे धिक्कार है कि आपकी ऐसी अवस्थामें जब कि आँखोंसे दिखता नहीं, मैं बनारस चला जाऊँ। यद्यपि मैं आपकी कुछ भी वैयावृत्त्य नहीं कर सकता, पर कम-से-कम स्वाध्याय तो आपके समक्ष कर देता हूँ।' उन्होंने उपेक्षाभावसे कहा-'यह सब ठीक है पर यह काम तो पुजारी कर देवेगा। तुम विलम्ब न करो और शीघ्र बनारस चले जाओ, परीक्षा देकर आ जाना।'
___मैं बाईजीके विशेष आग्रहसे बनारस चला गया और श्री शास्त्रीजीसे पूर्ववत् अध्ययन करने लगा, परन्तु चित्त बाईजीकी बीमारीमें था, अतः अभ्यासकी शिथिलता रहती थी। फल यह हुआ कि परीक्षामें अनुत्तीर्ण हो गया। परीक्षा
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