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मेरी जीवनगाथा
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यहाँ कई छात्र बाहरसे आकर न्यायशास्त्रका अध्ययन करते थे। मेरा भी चित्त इन्हींके पास अध्ययन करनेका हो गया। यद्यपि यह बात श्री शान्तिलालजीको बहुत अनिष्टकारक हुई, तो भी मैं उनके पास अध्ययन करने लगा।
यहाँ पर एक गिरिधर शर्मा भी रहते थे, जो बड़े चलते पुरजा थे। मेरा उनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया। मैं सामान्यनिरुक्तिकी विवेचना पढ़ता था। यहाँका समस्त वातावरण न्यायशास्त्रमय था। जहाँ देखो वहाँ 'अवच्छेदकावच्छेदेन' की ध्वनि सुनाई देती थी, परन्तु यहाँकी एक बात मुझे बहुत ही अनिष्टकर थी। वह यह कि यहाँके सब मनुष्य मत्स्य-मांसभोजी थे। जहाँपर मैं रहता था उस स्थानसे १५ कदमकी दूरी पर एक पीपलका वृक्ष था। उसके नीचे एक देवीकी मूर्ति थी। वहाँ पर प्रायः जब किसीका यज्ञोपवीत हुआ, . विवाहशादी हुई, श्राद्ध आदि हुए, दशहरा आया, या नवदुर्गा आई, तब बकरोंकी बलि होती थी। यह मुझसे न देखा गया तथा प्रतिदिन लोग मत्स्यमांस पकाते थे। उसकी दुर्गन्धके मारे मुझसे भोजन नहीं खाया जाता था। मैंने आटा खाना छोड़ दिया, केवल चावल और शाक खाकर दिन काटता था। कभी-कभी भुने चने खाकर ही दिन निकाल देता था।
एक दिन मोहल्लेके एक वृद्ध ब्राह्मणने कहा-'बेटा ! इतने दुर्बल क्यों होते जाते हो? क्या खाने के लिये नहीं मिलता ? या तुम बनानेमें अपटु हो ? हमसे कहो हम तुम्हारी सब तकलीफ दूर कर देवेंगे। मैंने कहा-'बाबाजी ! आपके प्रसादसे मेरे पास खानपानकी सब सामग्री है, परन्तु जब मैं खानेको बैठता हूँ तब मछलीकी गन्ध आती है, अतः ग्रास भीतर नहीं जाता। एक दिनकी बात है कि मैं भोजन बनाकर खानेकी तैयारीमें था कि इतनेमें एक ब्राह्मणका लड़का आया, एक पोटली भी लिये था वह । मैंने उससे पूछा-क्या वनसे पड़ोरा लाये हो ? वह बोला-हाँ, लाया हूँ, क्या आप लोगे ? उत्तम तरकारी बनेगी। मैं भोला-भाला, क्या जानूँ कि वह क्या लिये है ? मैंने कहा-दीजिये। उसने पोटली खोली उसमें केकड़ा और मछलियाँ थीं। मैं तो देखकर अन्धा हो गया और उस दिन जो भोजन बनाया था वह नहीं खाया गया-दिन रात उपवास करना पड़ा। उसके बाद दूसरे दिन जब भोजन बनानेकी चेष्टा करने लगा तब वही पोटलीका दृश्य आँखोंके सामने उपस्थित होने लगा। इस तरह कई दिन सूखे चने और चावल खा-खाकर दिन काटे। जब उदराग्नि प्रज्वलित होती है और भूखकी वेदना नहीं सही जाती तब आँख
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