________________
100
मेरी जीवनगाथा
हमको वेदना है और पूर्व तरह हँसमुख रहना आदि उनके कार्य ज्यों-के-त्यों चालू रहते थे।
एक दिन बोलीं- 'बेटा हमको शूलकी वेदना बहुत है, अतः यहाँसे देश चलो, वहाँ पर इसका प्रतिकार अनायास हो जायगा । हम श्री बाईजीको लेकर बरुआसागर आ गये । यहाँ पर एक साधारण आदमीने किसी वनस्पतिकी जड़ लाकर दी और कहा इसे छेरीके दुधमें घिसकर लगाओ, शिरकी वेदना इससे चली जावेगी । ऐसा ही हुआ कि उस दवाईके प्रयोगसे शिरोवेदना तो चली गई परन्तु आँखका मोतियाबिन्द नहीं गया । अन्तमें सबकी यही सम्मति हुई कि झाँसी जाकर डाक्टरको आँख दिखा लाना चाहिए ।
I
बाईजीका स्वाभिमान
श्री सर्राफ मूलचन्द्रजीका जो कि एक असाधारण व्यक्ति थे हमारे साथ घनिष्ठ प्रेम हो गया । उनके संसर्गमें हमें कोई प्रकारका कष्ट न रहा । आप साहूकार थे, साहूकार ही नहीं जमींदार भी थे। आपकी रुचि धर्ममें सम्यक् प्रकारसे थी । प्रतिदिन प्रातः काल श्री जिनेन्द्रकी पूजा करना अनन्तर एक घण्टा शास्त्रस्वाध्यायमें लगाना यह आपका नियमित कार्य था ।
बाईजीके दिन भी आनन्दसे जाने लगे । यहाँ पर नन्दकिशोर अलया एक विलक्षण बुद्धिका पुरुष था, बड़ा ही धर्मात्मा जीव था । श्रीकामताप्रसादजी जो कि बाईजीके भाई थे बड़े ही सज्जन धार्मिक व्यक्ति थे तथा श्री गुलाबचन्द्रजी जो बाईजी सम्बन्धी थे, बहुत ही योग्य थे। आपको पद्मपुराणके उपाख्यान प्रायः कण्ठस्थ थे। इन सबके संपर्कसे धर्मध्यानमें अच्छी तरह काल जाने लगा, परन्तु बाईजीकी आँखमें जो मोतियाबिन्द हो गया था वह ज्यों-का-त्यों था, अतः चिन्ता निरन्तर रहती थी । बाईजीका कहना था कि 'बेटा ! चिन्ता मत करो, पुरुषार्थ करो, नेत्र अच्छा होना होगा हो जावेगा, चिन्तासे क्या लाभ ? झाँसी चलो । निदान हम, सर्राफ तथा कामताप्रसादजी बाईजीको लेकर झाँसी गये और बड़ी अस्पतालमें पहुँचे। वहाँ पर एक बंगाली डाक्टर आँखके इलाज में बहुत ही निपुण था । उसे बाईजीकी आँख दिखलाई, उसने १० मिनटमें परीक्षा कर कहा कि 'मोतियाबिन्द है, निकल सकता है, चिन्ता करनेकी कोई बात नहीं, १५ दिनमें आराम हो जायेगा, हमारी ५०) फीस लगेगी। यदि यहाँ सरकारी वार्डमें न रहोगे तो ५) रोज पर एक बँगला मिल जायगा, १५) दिनके ७५) लगेंगे तथा एक कम्पोटर की १५) दिनकी फीस पृथक् देनी पड़ेगी ।' सर्राफने कहा- 'कोई बात नहीं, कबसे आ जावें । उसने कहा- 'कलसे आ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org