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________________ बाईजीके शिरश्शूल बाईजीके शिरश्शूल मुझे कोई व्यग्रता न हो, आनन्दसे पठन-पाठन हो....इस अभिप्रायसे बाईजी भी बनारसके भेलूपुरमें रहा करती थीं। उनकी कृपासे मुझे आर्थिक व्यग्रता नहीं रहती थी तथा भोजनादिक व्यवस्थाकी भी आकुलता नहीं करनी पड़ती थी। यह सब सुभीता होनेपर भी ऐसा कठिन संकट उपस्थित हुआ कि बाईजीके मस्तकमें शूलवेदना हो गई और इसी वेदनासे उनकी आँखमें मोतियाबिन्द भी हो गया। इन कारणोंसे चित्तमें निरन्तर व्यग्रता रहने लगी। बाईजी बोली-"भैया ! व्यग्र मत हो, कर्मका बिपाक है, जो किया है, उसे भोगना ही पड़ेगा।' मैंने कहा-'बाईजी ! यहाँ पर एक डाक्टर आँखके इलाजमें बहुत ही निपुण है, वे महाराज काशीनरेश के डाक्टर हैं, उनके मकान पर लिखा है कि जो घर पर आँख दिखावेगा उससे फीस न ली जावेगी।' बाईजी ने कहा-'भैया ! यह सब व्यापारकी नीति है, केवल अपनी प्रतिष्ठाके लिए उन्होंने वह लिख रक्खा है, मेरा विश्वास है कि उनसे कुछ भी लाभ न होगा।' मैंने बाईजीकी बात न मानी और ताँगा कर उन्हें डाक्टर साहबके घर ले गया। डाक्टर साहबने ५ मिनट देखकर एक परचा लिख दिया और कहा-'नीचे अस्पतालसे दवा ले लो। मैंने कहा-'चलो, दवाई तो मिल जावेगी।' नीचे आया, कम्पोटरको दवाका परचा दिया। उसने एक शीशी दी और कहा '१६) इसका मूल्य है लाओ।' मैंने कहा-'बाहर तो लिखा है कि डाक्टर साहब मुफ्तमें नेत्रोंका इलाज करते हैं। यह रुपया किस बातके लेते हो ?' कम्पोटर महोदय दृढ़ताके साथ बोले-'यही तो लिखा है कि डाक्टर साहब बिना फीसके इलाज करते हैं। यह तो नहीं लिखा कि बिना कीमत दवाई देते हैं। यदि तुम डाक्टर साहबको घर पर बुलाते तो १६) फीस, २) बग्घी भाड़ा तथा दवाईका दाम तुम्हें लगता। यहाँ आनेसे इतना लाभ तो तुम्हें हुआ कि १८) तुम्हारे बच गये और दवाई लानेके लिये बाजार जाना पड़ता, वह समय बच गया। अपना भाग्य समझो कि तुम्हे यह सुभीता नसीब हो गया । अब हमें बात करनेका समय नहीं, अन्य कार्य करना है। दवाई लेकर जाओ और १६) हमें दो।' मैंने चुपचाप उन्हें १६) दे दिये और बाईजीको लेकर भेलूपुर चला गया। हम संतोषके साथ बाईजीकी वैयावृत्त करनेमें समयका सदुपयोग करने लगे। बाईजीकी धीरता सराहनीय थी, यही कारण था कि इस वेदनाकालमें भी सामायिक समय पर करना, नित्य- नियममें जितना काल स्वस्थ अवस्थामें लगाती थीं उससे न्यून एक मिनट भी न लगाना, किसीसे यह नहीं कहना कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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