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________________ मेरी जीवनगाथा 98 बीस दिन परीक्षाके रह गये थे, कई ग्रंथ तो ज्यों-के-त्यों सन्दूकमें रखे रहे जैसे सन्मति तर्क आदि। फिर भी परीक्षाका साहस किया। मेरा यह काम रह गया कि प्रातःकाल गंगास्नान करना, वहाँसे आकर श्रीपार्श्वप्रभुके दर्शन करना, इसके बाद महामंत्रकी एक माला जपना, इसके अनन्तर सहस्रनामका पाठ करना, फिर पुस्तकों का अवलोकन करना, इसके बाद भोजन करना और फिर सहस्रनामका पाठ करना। इसी प्रकार सायंकालको भोजन करना, पश्चात् गंगा तटपर भ्रमण करना और वहींपर महामंत्रकी माला करनेके बाद सहस्रनामका पाठ करना। इस तरह पन्द्रह दिन पूर्ण किये। सम्वत् १६८० की बात है जिस दिन परीक्षा थी। उस दिन प्रातः काल शौचादिसे निवृत्त होकर श्री मन्दिरजी गये और श्री पार्श्वप्रभुके दर्शन कर सहस्रनामका पाठ किया। पश्चात् पुस्तक लेकर परीक्षा देनेके लिये विश्वविद्यालय चले गये। मार्गमें पुस्तकके ५-६ स्थल देख लिये। आठ बजे परीक्षा प्रारम्भ हो गई, परचा हाथमें आया, श्रीमहामंत्रके प्रसादसे पुस्तकके जो स्थल मार्गमें देखे थे वे ही प्रश्नपत्रमें आ गये। फिर क्या था ? आनन्दकी सीमा न रही। तीन घण्टा तक प्रश्नोंका अच्छे प्रकार उत्तर लिखते रहे। अनन्तर पाठशालामें आ गये। इसी प्रकार आठ दिनके परचे आनन्दसे किये और परीक्षाफलकी बाट जोहने लगे। सात सप्ताह बाद परीक्षाफल निकला। मैंने बड़ी उत्सुकताके साथ शास्त्रीजीके पास जाकर पूछा-'महाराज ! क्या मैं पास हो गया ?' महाराजने बड़ी प्रसन्नतासे उत्तर दिया-'अरे बेटा ! तेरा भाग्य जबरदस्त निकला, तू फर्स्ट डिवीजनमें उत्तीर्ण हुआ। अरे, इतना ही नहीं फर्स्ट पास हुआ। तेरे ८०० नम्बरोंमें ६४० नम्बर आये। अब तू शास्त्राचार्य परीक्षा पास कर । तुझे २५) मासिक छात्रवृत्ति मिलेगी। मैं बहुत ही प्रसन्न हूँ कि मेरे द्वारा एक वैश्य छात्रको यह सम्मान मिला। अब बेटा एक बात मेरी मानना, शास्त्राचार्य परीक्षाका अभ्यास करना, इतनेमें ही सन्तोष मत कर लेना। तेरी बुद्धि क्षणिक है। क्षणिक ही नहीं, कोमल भी है। तू प्रत्येकके प्रभावमें आ जाता है, अतः मेरी यह आज्ञा है कि अब तुम बालक नहीं। कुछ दिनके बाद कार्यक्षेत्रमें आओगे, इससे चित्तको स्थिर कर कार्य करो।' मैं प्रणाम कर स्थानपर आ गया। क्वीन्स कालेज बनारसकी न्यायमध्यमानें तो मैं पहले ही संवत् १६६४ में उत्तीर्ण हो चुका था, अतः आचार्य प्रथम खण्डके पढ़नेकी कोशिश करने लगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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