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सहस्रनामका अद्भुत प्रभाव
है और इसे पढ़नेके अनन्तर छात्र मध्यमामें अच्छी तरह प्रवेश भी कर सकेगा, परन्तु इसमें ग्रन्थकार ने जो कुछ लिखा है वह अत्यन्त सरल भाषामें लिखा है, अतः इससे छात्रको ग्रंथ लगानेकी व्युत्पत्ति देरसे होगी। इसके बाद जो महाशय मुझे लाये थे वे हँसते हुए बोले 'पण्डितजी ! आप जानते हैं, आजकल उसी पुस्तकका महान् आदर होता है, जिसमें विषय अत्यन्त सरल भाषामें समझाया जाता है। आपके कहनेसे विदित हुआ कि यह पुस्तक सरल भाषामें लिखी गई है, अतः अवश्य ही आदरणीय है। कहिये मालवीयजी ! प्रारम्भमें तो छात्रोंको ऐसी ही पुस्तकोंका अध्ययन कराना चाहिये, क्योंकि प्रथम अवस्थामें छात्रोंकी बुद्धि सुकुमार होती है। पुस्तक जितनी सरल भाषामें होगी, छात्र उतने ही जल्दी व्युत्पन्न हो सकेगा। अपदार्थ नहीं होना चाहिये। ......इस प्रकार ५ मिनटकी बहसके बाद प्रथम परीक्षामें वह पुस्तक रखे गई। इसके बाद १५ मिनट और बहस हुई होगी कि उतनेमें ही शास्त्री परीक्षा तकका कोर्स निश्चित हो गया।
___ पाठकोंको यह उत्कण्ठा होगी कि वे महाशय कौन थे जिन्होंने कि जैन ग्रन्थोंके विषयमें इतनी दिलचस्पी ली। वे महाशय थे श्रीमान् स्वर्गीय मोतीलालजी नेहरू, जिनके कि सुपुत्र जगत्प्रख्यात श्री जवाहरलालजी नेहरू भारतके सिरताज हैं।
सहस्रनामका अदभुत प्रभाव संवत् १६७७ की बात है। मैं श्रीशास्त्रीजी महोदयसे न्यायशास्त्रका अध्ययन विश्वविद्यालयमें करने लगा और वहाँकी शास्त्रीय परीक्षाका छात्र हो गया। दो वर्षके अध्ययनके बाद शास्त्री-परीक्षाका फार्म भर दिया।
उन्हीं दिनों हमारे प्रान्तके ललितपुर नगरमें गजरथ महोत्सव था, अतः फार्म भरनेके बाद वहाँ चला गया। बादमें दो स्थानोंमें और भी गजरथ थे। इस तरह दो माससे अधिक समय लग गया। यही दिन अभ्यासके थे, शास्त्रीजी महाराज बहुत ही नाराज हुए। बोले-'यह तुमने क्या किया ?' मैंने कहा'महाराज ! अपराध तो महान् हुआ इसमें सन्देह नहीं। यदि आज्ञा हो तो परीक्षामें न बै→।' शास्त्रीजी बोले-'कितने परिश्रमसे तो जैन शास्त्रके न्यायग्रंथोंका यूनिवर्सिटीमें प्रवेश कराया और फिर कहता है-परीक्षामें न बैलूंगा। मैंने कहा 'जो आज्ञा।' उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा कि 'अच्छा परिश्रम करो, विश्वनाथ भला करेगा।
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