SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनारस हिन्दू-यूनिवर्सिटीमें जैन कोर्स 95 अन्तमें लाला प्रकाशचन्द्रजीका जीवन राग-रंगमें गया। आपके कोई पुत्र नहीं हुआ। इस प्रकार संसारकी दशा देखकर उत्तम पुरुषोंको उचित है कि अपने बालकोंको सुमार्ग पर लानेके लिये स्कूली शिक्षाके पहले धार्मिक शिक्षा दें और उनकी कुत्सित प्रवृत्ति पर प्रारम्भसे ही नियन्त्रण रखें । अस्तु, बनारस हिन्दू-यूनिवर्सिटीमें जैन कोर्स __मैं श्री शास्त्रीजीसे न्यायशास्त्रका अध्ययन करने लगा। अष्टसहस्री ग्रन्थ, जिसमें देवागम स्तोत्र सहित श्री अकलंक स्वामी विरचित आठसौ श्लोकप्रमित (अष्टशती) भाष्यके ऊपर श्री विद्यानन्द स्वामी कृत आठ हजार श्लोकोंमें गम्भीर विशद विवेचनके साथ आप्त भगवान्के स्वरूपका निर्णय है, पढ़ने लगा। मेरी इस ग्रन्थके ऊपर महती रुचि थी। उसके ऊपर लिखा है "श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यानैः । विज्ञायेत ययैव स्वसमयपरसमयसद्भावः ।।" जिसके ऊपर श्री यशोविजय उपाध्यायने लिखा है कि _ 'विषमा अष्टसहस्री अष्टसहौर्विवेच्यते।' __ श्रीशास्त्रीजीके अनुग्रहसे मेरा यह ग्रन्थ एक वर्ष में पूर्ण हो गया। जिस दिन मेरा यह महान् ग्रन्थ पूर्ण हुआ उसी दिन मैंने श्रीशास्त्रीजीके चरणकमलोंमें ५००) की एक हीराकी अंगूठी भेंट कर दी। श्रीयुत्त पूज्य शास्त्रीजीने बहुत ही आग्रह किया कि यह क्या करता है ? तू मामूली छात्र है, इतनी शक्ति तुम्हारी नहीं जो इतना दान कर सको, हमारी अवस्था अंगूठी पहिननेकी नहीं इत्यादि बहुत कुछ उन्होंने कहा, परन्तु मैं उनके चरणोंमें लोट गया, मैंने नम्र शब्दोंमें कहा कि 'महाराज ! आज मुझे इतना हर्ष है कि मेरे पास राज्य होता तो मैं उसे भी आपके चरणोंमें समर्पित कर तृप्त नहीं होता, अतः आशा करता हूँ कि आप मेरी तुच्छ भेंटको अवश्य ही स्वीकृत कर लें, अन्यथा मुझे अत्यन्त संक्लेश होगा।' मेरा आग्रह देखकर श्रीमान् शास्त्रीजीने यद्यपि अंगूठी ले ली, परन्तु उनका अन्तरंग यही रहा कि यह किसी तरह वापिस ले लेता तो अच्छा होता। इन्हीं दिनों भारतके नररत्न श्रीमालवीयजी द्वारा हिन्दू यूनिवर्सिटीकी स्थापना हुई। उसमें सर्व दर्शनोंके शास्त्रोंके पठनपाठनके लिये बड़े-बड़े दिग्गज विद्वान् रक्खे गये । शास्त्रीजी महाराज संस्कृत विभागके प्रिंसिपल हुए। उन्होंने श्रीमालवीयजीसे कहा कि 'जब इस यूनिवर्सिटीमें सब मतोंके शास्त्रों के अध्ययनका प्रबन्ध है तब एक चेयर जैनागमके प्रचारके लिये भी होना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy