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मेरी जीवनगाथा
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जब एक बार मैं सहारनपुर लाला जम्बूप्रसादजीके यहाँ गया था, तब अचानक आपसे भेंट हो गई। आप बलात्कार मुझे अपने भवनमें ले गये और नाना प्रकारके उपालम्भ देने लगे-'तुम्हें उचित था कि हमें सुमार्ग पर लानेका प्रयत्न करते, परंतु तुमने हमारी उपेक्षा की। आज हमारी यह दशा हो गई कि हमारा १०००) मासिक व्यय है फिर भी त्रुटि रहती है। ये व्यसन ऐसे हैं कि इनमें अरबोंकी सम्पत्ति बिला जाती है। मैंने कहा-'मैंने तो काशीमें आपको बहुत ही समझाया था कि लालाजी ! इस कुकृत्यमें न पड़ो, परन्तु आपने एक न मानी और मुझे ही डाँटा कि तुम लोग दरिद्र हो, तुम्हें इन नाटकादि रसोंका क्या स्वाद ? मैं चुप रह गया, भवितव्य दुर्निवार है।'
मेरी बात पूरी न हो पाई थी कि लालाजीने झट बोतलोंमेंसे कुछ लाल-लाल पानी निकाला और एक ग्लास, जो छोटा-सा था, पी गये मुझसे भी बलात्कार पीनेका आग्रह करने लगे। मैंने कहा-'भाई साहब ! मुझे दीर्घ शंका जाना है, जाकर आता हूँ।' उन्होंने कहा-'अच्छा यहीं चले जाओ।' मैं लोटा लेकर मय कपड़ोंके शौचगृहकी ओर जाने लगा। देखते ही आपने टोका 'भले मानुष ! कपड़ा तो उतार दो।' मैंने कहा-'जल्दी जाना है।' इत्यादि कहकर मैंने जोड़ा तो वहीं छोड़ा और शीघ्र चलकर दरवाजे तक आया, वहाँ लोटा छोड़ा और श्रीलाला जम्बूप्रसादजी रईसके घर सकुशल पहुंच गया।
लालाजीने हांफते देखकर कहा-'भयभीत क्यों हो ?' मैंने आद्योपान्त सब समाचार सुना दिया। लालाजीने उसी समय बादाम का रोगन शिरमें मलवाया और कहा-कि 'अब आइन्दह भूलकर भी उस ओर न जाना। मैंने कहा-'श्री जिनेन्द्रदेवके धर्मका प्रसाद था जो आज बच गया। अब कदापि उस मार्गसे न निकलूँगा।' मनमें आया कि 'हे भगवान् ! तुम्हारी महिमा अपार है। यद्यपि आप तटस्थ हैं तथापि आपके नामके प्रसादसे ही मैं आज पापपंकसे लिप्त नहीं हुआ। कहनेका तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य बालकपनसे अपनी प्रवृत्तिको सुमार्ग पर नहीं लाते उनकी यही गति होती है जो कि हमारे अभिन्न मित्रकी हुई। माँ-बाप सहस्रों-लाखों रुपया बालक-बालिकाओंके विवाह आदि कार्यों में पानीकी तरह बहा देते हैं, परन्तु जिसमें उनका जीवन सुखमय बीते ऐसी शिक्षामें पैसा व्यय करनेके लिये कृपण ही रहते हैं। यही कारण है कि भारतके बालक प्रायः बालकपनसे ही कुसंगतिमें पड़कर अपना सर्वस्व नष्ट कर लेते हैं। इस विषयमें विशेष लिखकर पाठकोंका समय नहीं लेना चाहता।
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