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लाला प्रकाशचन्द्र रईस
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आपके पिताजी २५०) मासिक ही तो भेजते हैं पर तुम २५०) की एवजमें ५००) मासिक व्यय करते हो। यदि ऐसा न होता तो दो मासमें तुम्हें ५००) कर्ज कैसे हो जाते ? तुमने हमसे उधार माँगे, यद्यपि मेरे पास न थे तो भी मैंने बाईजीकी सोनेकी सँकली गहने रखकर ५००) तुम्हें दिये, फिर भी तुम निरन्तर व्यग्र रहते हो । अब दो मास हो गये, तुम्हें ५००) और चाहिये तथा बाईजी कहती हैं कि भैया सँकली लाओ, अतः मैं भी असमंजसमें पड़ा हूँ।' देवयोगसे उसी दिन लाला प्रकाशचन्द्रका १०००) एक हजार रुपया आ गया, ५००) मुझे दे दिये, मैं बाईजीकी चिन्तासे उन्मुक्त हुआ।
बातचीतका सिलसिला जारी रखते हुए मैंने फिर कहा-'कहो प्रकाश ! अब क्या इस कुटेवको छोड़ोगे या गर्तमें पड़ोगे ?' बहुत कुछ कहा, परन्तु एक भी न सुनी और निरन्तर प्रति रात्रि नाटक देखने के लिए जाना और रात्रिके दो बजे वापिस आना यह उनका मुख्य कार्य जारी रहा। कभी-कभी तो प्रातःकाल आते थे, अतः अन्य पापकी भी शंका होने लगी और वह भी सत्य ही निकली। एक दिन मैं अचानक उनकी कोठरीमें पहुँच गया, उस समय आप एक ग्लासमें कुछ पान कर रहे थे, मुझे देखते ही उन्होंने वह ग्लास गंगा तटपर फेंक दिया। मैंने कहा-'क्या था ?' आप बोले 'गुलाब शर्बत था। मैंने कहा-'फेंकनेकी क्या आवश्यकता थी? आप बोले-'उसमें कीड़ी निकल आई थी। मैंने कहा-'ठीक, पर ग्लास फेंकनेकी आवश्यकता न थी। आपने कुछ अभिमानके साथ कहा-'हम लोग रईस हैं। ऐसी पर्वाह नहीं करते।' मैंने कहा-'ठीक, परन्तु यह जो गन्ध महक रही है, किसकी है ?' आप बोले-'तुम्हें यदि सन्देह है तो पीकर देख लो, महाराज ! लाओ एक ग्लास शर्बत गुलाबका इनको पिला दो, तब इनको पता लग जावेगा क्या है ? यह तो सन्देह करते हैं, आज इन्हें जाने मत दो।'
मैं तो डर गया और पेशाबका बहाना कर भाग आया। उस दिनसे लाला प्रकाशचन्द्रसे मेरा संसर्ग छूट गया। उसके बाद उनकी जो अवस्था हुई वह गुप्त नहीं। उनके पिता व भाई साहब आदि सबको उनका कृत्य विदित हो गया। उसी वर्ष उनकी शादी राजा दीनदयाल, जो नवाब हैदराबादके यहाँ रहते थे, उनके यहाँ हो गयी। उनका चरित्र सुधारनेके लिये सब कुछ उपाय किये गये, परन्तु सब विफल हुए। अन्तमें आप सहारनपुर पहुँच गये और वहाँ रहनेका जो महल था उसे छोड़कर एक स्वतंत्र भवनमें रहने लगे।
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