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________________ मेरी जीवनगाथा क्योंकि जिनके पास धन है, क्या उनके सदृश मेरे भी परिणाम न हो जाते ?' कहनेका तात्पर्य यह है कि तुम्हारे पास धन होता तो इसी तरहके कार्यों में प्रवृत्ति तुम्हारी भी हो जाती, परन्तु पासमें यथेष्ट पैसा नहीं, अतः हमको ही शिक्षा देनेमें अपनी प्रभुता दिखाना जानते हो। अथवा किसीने ठीक कहा है __'जो धनवन्त सो देय कुछ देय कहा धनहीन । कहा निचोरे नग्न जन नहाय सरोवर कीन।।' अर्थात् जो कुछ दे सकता है वह धनवन्त ही दे सकता है, जो धनहीन-दरिद्र है वह क्या देगा ? जैसे सरोवरमें स्नान करनेवाला नग्नजन वस्त्र न होनेसे क्या निचोड़ेगा ? अतः तुम्हारे पास कुछ पैसा तो है ही नहीं, इसीलिये हमें शिक्षा देने आये हो। तुम्हारा भाग्य था कि हम जैसे वैभवशाली तुम्हें मिल गये थे, हम तुम्हें नाटक ही नहीं सब रसका आस्वादन करा देते परन्तु तुम क्या करो, भाग्य भी तो इस योग्य होना चाहिये। अब हमने यह निश्चय कर लिया कि तुम रसास्वादोंके पात्र नहीं।' लाला प्रकाशचन्द्रजी जब इतना कह चुके तब मैंने कहा-'लालाजी ! तुम बड़ी भूल कर रहे हो, इसका फल अत्यन्त ही कटुक होगा। अभी तो तुम्हें नाटककी चाट लगी है, कुछ दिन बाद वैश्या और मद्यकी चाट लगेगी और तब तुम अपनी कुल-परम्पराकी रक्षा न कर सकोगे। बड़े-बड़े राजा महाराजा इन व्यसनोंमें अनुरक्त होकर अधोगतिके भाजन हुए, आप तो उनके समक्ष कुछ भी नहीं, क्या आपने चारुदत्तका चरित नहीं पढ़ा है जो कि इस विषयमें करोड़ों दीनारें खो चुका था। हमें तुम्हारे रूप और ज्ञानपर तरस आता है तथा आपके वंश-परम्पराकी निर्मल कीर्तिका स्मरण होते ही एकदम खेद होने लगता है। मनमें आता है कि हे भगवान् ! यह क्या हो रहा है ? हमारा आपसे कोई सम्बन्ध नहीं, फिर भी मनुष्यके नाते आपकी कुत्सित प्रवृत्ति देख उद्विग्न हो जाता हूँ, साथ ही इस बातका भय भी लगता है कि आपके पूज्य पिताजी व भाई साहब क्या कहेंगे कि तुम वहाँ पर थे फिर चिरंजीवी प्रकाशकी ऐसी प्रवृत्ति क्यों हुई ? अतः आप हमारी शिक्षा मानो या न मानो, परन्तु आगममें जो लिखा है उसे तो मानो । छात्रोंका काम अध्ययन करना ही मुख्य है, नाटकादि देखकर समयको बरबाद करना छात्र-जीवनका घातक है, तुम्हारी बुद्धि निर्मल है, अभी वय भी छोटा है, अभी तुम समीचीन मार्गमें आ सकते हो, अभी तुम्हें लज्जा है, गुरुजीका भय है और यह भी भय है कि पिताजी न जान सकें। खर्चके लिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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