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लाला प्रकाशचन्द्र रईस
आये, अपनी शिक्षा अपने ही में सीमित रखो, हम रईसके बालक हैं, हमारा जीवन निरन्तर आमोद-प्रमोदमें जाता है। देखो हमारी चर्या, जब प्रातःकाल हुआ और हमारी निद्रा भंग हुई नहीं कि एक नौकर लोटा लिये खड़ा, हम शौचगृहमें गये नहीं कि लोटा रखा पाया, शौचगृहसे बाहर आये कि लोटा उठाने के लिए आदमी दौड़ा, अनन्तर एक आदमीने पानी देकर हाथ-पैर धुलाये तो दूसरेने झटसे तौलियासे साफ किये, उसी समय तीसरे नौकरने आकर हाथमें दन्तधावन दी, हमने मुखमार्जन किया, पश्चात् नाई आया, वह सिरमें तथा सम्पूर्ण शरीरमें मालिश कर जानेको उद्यत हुआ कि पाँचवाँ नौकर गरम पानीसे स्नान कराने लगता है, स्नानके अनन्तर सर्वांगको तौलियासे मार्जन कर कंघासे शिरके बाल सँभारनेके लिये तैयार हुआ कि एक आदमीने सन्मुख हाथमें दर्पण लिया, एक आदमी धोती लिये अलग खड़ा रहता है, हमने धोती पहन कर कुरता पहना और दर्पणमें मुख देख सब कार्योंसे निवृत्त हो मन्दिर जानेके लिये तैयार हुए कि एक आदमी छतरी लिये पीछे-पीछे चलने लगा, मन्दिर पहुँच कर श्रीजिनेन्द्र प्रभुके दर्शन कर नाममात्रको स्वाध्याय किया, फिर उसी रीतिसे घर आ गये, अनन्तर दुग्धपानादि कर पश्चात् अध्यापकों द्वारा कुछ पढ़कर शिक्षाकी रश्मको अदा किया । पश्चात् मध्याह्नके भोजनकी क्रियासे निवृत्त होकर सो गये, सोनेके बाद सन्तरा, अनार, मौसंबीका शर्बत पान कर कुछ जलपान किया, अनन्तर खेल-कूदके बागमें चले गये, वहाँसे आकर सायंकालका भोजन किया, फ़िर गल्प बाजारको हरा-भरा कर यद्वा तद्वा गोष्ठीकथा करने लगे, रात्रिके नौ बजेके बाद किसी नाटकगृह अथवा सिनेमा में चले गये और वहाँसे आकर दुग्धादि -पान कर सो गए। यह हमारी दिनरात्रिकी चर्या है। तुम लोगोंको इन राजकीय सुखोंका क्या अनुभव ? इसीलिये हमसे कहते हो कि इस कार्यको त्यागो, कल्पना करो, यदि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे अनुकूल होता और जो सामग्री हमें सुलभ है, तुमको भी सुलभ होती, तो आप क्या करते ? न होने पर यह सब शिक्षा सूझती है । 'वस्त्राभावे ब्रह्मचारी ।' अथवा किसी कविने कहा है
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'कहा करूँ धन है नहीं, होता तो किस काम । जिनके है उन सम कहा, होत नहीं परिणाम ।।'
भावार्थ इसका यह है - कोई मनुष्य मनमें सोचता है कि क्या करूँ ? पासमें धन नहीं है, अन्यथा संसारमें अपूर्व दान कर दीन-दरिद्रोंको संतुष्ट कर देता । परन्तु फिर वेचारता है कि यदि धन होता भी तो किस कामका ?
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