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________________ मेरी जीवनगाथा 90 प्रचार भी हो, क्योंकि आप धनाढ्य हैं, आपका कण्ठ भी उत्तम है, बुद्धि भी निर्मल है और रूपसौन्दर्यमें भी आप राजकुमारोंको लज्जित करते हैं। आशा है आप हमारी सम्मतिको अपनावेंगे। यदि आप हमारी सम्मतिका अनादर करेंगे तो उत्तर कालमें पश्चात्तापके पात्र होंगे ।' पर कौन सुनता था, उन्होंने हमारी सम्मतिका अनादर करते हुए कहा कि हमारे पास इतना विभव है कि बीसों पण्डित हमारा दरवाजा खटखटाते हैं। मैंने कहा- 'आपका दरवाजा ही तो खटखटाते हैं और आपको बनाकर आपसे कुछ ले जाते हैं, पर तुम तो उनसे कुछ नहीं ले पाते, बुद्ध-के-बुद्धू ही बने रहते हो। स्वयं पण्डित बनो, भाग्यने तुम्हारे लिये सब अनुकूल योग्यता दी है, आपका कुल धार्मिक है, पूजा-प्रभावनामें प्रसिद्ध है! आप ही के दादा भारूमल्लजीने शिखरजीका संघ निकाला, आप ही के चाचाने अलीगढ़ पाठशालामें १०० ) मासिककी सहायता दी, आप ही के चाचा लाला उग्रसेनजीने १००) मासिक देकर महाविद्यालय मथुराका सञ्चालन कराया, आप ही के चाचाके यहाँ न्यायदिवाकर पं. पन्नालालजी साहब अधिकांश निवास करते थे तथा पण्डित लालमनजी साहब और फारसीके पण्डित उनके सहयोगमें अपना समय देते थे, आप ही के भाई साहब लाला जम्बूप्रसादजी आदि जैनधर्मके प्रमुख विद्वान् हैं, विद्वान् ही नहीं, प्रतिदिन चार घण्टा नित्यनियममें लगाते हैं, आपके ही भाई लाला हुलासरायजी कितने धर्मात्मा हैं, यह किसीसे छिपा नहीं, तथा आपके यहाँ दो या चार धर्मात्मा - त्यागी लोग आपके चौकामें भोजन कर धर्मसाधन करते हैं, आपके पिता अपना समय निरन्तर धर्मध्यानमें लगाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि आपके वंशमें निरन्तर धर्मक्रियाओं का समादर है, पर आप क्या कर रहे हैं ? आपकी यह निन्द्य-धर्मविरुद्ध प्रवृत्ति आपके पतन में कारण होगी, अतः इसे त्यागो ।' मैंने सब कुछ कहा परन्तु सुनता कौन था ? जब आदमी मदान्ध हो जाता है तब हितकी बात कहनेवालोंको भी शत्रु समझने लगता। आप बोले- 'अभी तुमने इन कार्योंका स्वाद नहीं पाया, प्रथम तो तुम छात्र हो, छात्र ही नहीं, पराधीन वृत्तिसे अध्ययन कर रहे हो, पासमें पैसा नहीं, तुम्हें ऐसे नाट्यकलाके दृश्य कहाँ नसीब हैं ? देहाती आदमी हो, कभी तुम्हें नगरनिवासी जनका सम्पर्क नहीं मिला, तुम राग-रंगमें क्या जानो ? तथा तुम बुन्देलखण्डी हो, जहाँ ऐसे सरस नाटक आदि करनेवालोंका प्रायः अभाव ही है, अतः हमको शिक्षा देने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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