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लाला प्रकाशचन्द्र रईस
- एक दिन छात्रगण, मैं तथा आप प्रतिपदाकी छुट्टी होनेसे सायंकालके समय मन्दाकिनीके मन्दिर गये थे। वन्दना कर जिस मार्गसे वापिस लौट रहे थे उसमें एक नाटकगृह था। उस दिन 'हसीरे हिर्स' नाटक था। आप बोले-'चलो नाटक देख आवें। हम छात्र लोगोंने कहा-'प्रथम तो हम लोगों के पास पैसा नहीं, दूसरे सुपरिन्टेन्डेन्ट साहबसे छुट्टी नहीं लाये, अतः हम तो जाते हैं ! परन्तु आप तो स्वतन्त्र प्रकृतिके निर्भय रईस-पुत्र थे, अतः कहने लगे-'हम तो नाटक देखकर ही आवेंगे। हम लोग तो उसी समय चले आये, पर आप नाटक देखकर रात्रिके दो बजे भदैनीघाट पहुँचे। प्रातः काल शौचादिसे निवृत्त होकर पढ़नेके लिए चले गये।
लाला प्रकाशचन्द्रजी केवल साहित्यग्रन्थ पढ़ते थे। धनिक होनेसे सुपरिन्टेन्डेन्ट साहबका भी आपपर कोई विशेष दबाव नहीं था। अध्यापकगण यद्यपि आपपर इस बातका बहुत कुछ प्रभाव डालते थे कि केवल साहित्य पढ़नेसे विशेष लाभ नहीं। इसके साथ न्याय और धर्मशास्त्रका भी अध्ययन करो, परन्तु आप बातोंमें ही टाल देते थे और धर्मशर्माभ्युदयके चार या पाँच श्लोक पढ़कर अपनेको छात्र-गणोंमें मुख्य समझने लगे थे।
जिस दिनसे आप नाटक देखकर आये, न जाने क्यों उस दिनसे आपकी प्रवृत्ति एकदम विरुद्ध हो गई। आपके दो ही काम मुख्य रह गये-१. दिनको भोजनके बाद चार बजे तक सोना और २. रात्रिको बारह बजे तक नाटक देखना, पश्चात् दो घण्टा कहाँ पर बिताते भगवान् जाने, ढाई बजे निवास स्थान पर आते थे।
एक दिन बड़े आग्रहके साथ हमसे बोले-'नाटक देखने चलो।' मैंने कहा-'मैं नहीं जाता, आप तो ३) की कुर्सी पर आसीन होंगे और हम ।।) के टिकट में गँवार मनुष्योंके बीच बैठकर सिगरेट तथा बीड़ी की गन्ध सूंघेगे....यह मुझसे न होगा। आप बोले-'अच्छा ३) की टिकट पर देखना ।' मैंने कहा-'एक दिन देखनेसे क्या होगा ?' आपने झट १०००) का नोट मेरे हाथमें देते हुए कहा-'लो बारह मासका जिम्मा मैं लेता हूँ मैं डर गया, मैंने उनका नोट उन्हें देते हुए कहा कि 'जब रात्रिभर नाटक देखेगें तब पाठ्यपुस्तक कब देखेगें। अतः आप कृपा कीजिये, मेरे साथ ऐसा व्यवहार करना अच्छा नहीं। तथा आपको भी उचित है कि यदि बनारस आये हो तो विद्यार्जन द्वारा पण्डित बनकर जाओ, जिसमें आपके पिताको आनन्द हो और आपके द्वारा जैनधर्मका
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