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________________ 88 मेरी जीवनगाथा अपराधका दण्ड स्वयं ले लो।' मैं बोला- 'महाराज ! मैंने जो किया सो इसी लोभसे कि बाबाजी महाराजके पत्रोंमें परस्पर विरोध न हो । जेब काटनेवालोंकी तरह यह मेरा पेशा नहीं था, फिर भी बाह्य दृष्टिसे देखनेवाले इसे न मानेंगे और मुझे इस अपराधका दण्ड ही देवेंगे, आपकी जो आज्ञा है कि इस अपराधका प्रायश्चित स्वयं कर लो... वह मुझे मान्य है। महाराज ! कल जो सामूहिक भोजन होगा, मैं उसमें छात्रोंकी पंक्तिसे बाह्य स्थान पर बैठ कर भोजन करूँगा । और भोजनोपरान्त छात्रगणके भोजनका स्थान पवित्र करूँगा । पश्चात् स्नान कर श्री पार्श्वप्रभुका वन्दन करूँगा तथा एक मास पर्यन्त मधुर भोजन न करूँगा ।' 1 बाबाजी बहुत प्रसन्न हुए, छात्रगण भी हर्षित हो धन्यवाद देने लगे । सब लोग आनन्दसे पंक्ति भोजनमें एकत्रित हुए । मैंने जैसा प्रायश्चित लिया था उसीके अनुकूल कार्य किया। इसके बाद मैं आनन्दसे अध्ययन करने लगा और महाराज दूसरे ही दिन इस्तीफा देकर चले गये । लाला प्रकाशचन्द्र रईस कुछ दिनके बाद सहारनपुरसे स्वर्गीय लाला रूपचन्द्रजी रईसके सुपुत्र श्रीप्रकाशचन्द्रजी बनारस विद्यालयमें अध्ययनके लिये आये । आप बड़े भारी गण्यमान प्रसिद्ध रईसके पुत्र थे, अतः जहाँ मैं रहता था उसीके सामने की कोठरीमें रहने लगे। जिसमें मैं रहता था वह श्रीमान् बाबू छेदीलालजी रईस बनारसवालोंका मन्दिर है । गंगाके तटपर बना हुआ मन्दिरका अनुपम और सुन्दर भवन अब भी बड़ा भला मालूम होता है । मन्दिरके नीचे धर्मशाला थी। वहीं पर एक कोठरीमें मैं ठहरा था और सामनेवाली कोठरीमें श्रीप्रकाशचन्द्रजी साहब ठहर गये । आप रईसके पुत्र थे तथा पढ़नेमें कुशाग्रबुद्धि थे । आपकी भोजनादि क्रिया रईसोंके समान थी। यदि आप छात्र बनकर बनारस रहते और विद्याध्ययनमें उपयोग लगाते तो इसमें सन्देह नहीं कि गिनती के विद्वान् होते और इनके द्वारा जैनधर्मका विशेष प्रचार होता, परन्तु भवितव्य दुर्निवार है । आपको विद्यालयका भोजन रुचिकर नहीं हुआ, अतः आपकी पृथक् रसोई बनने लगी तथा रसोइया लोग भी उनकी रुचिके अनुकूल ही सब कार्य करने लगे । पर यह निश्चित सिद्धान्त है कि पठनकार्यमें रसनालम्पटता भी बाधक है । यहाँ तक ही सीमा रहती तो कुछ हानि न थी, पर आप बहुत कुछ आगे बढ़ चुके थे । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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