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________________ महान् प्रायश्चित 87 जब बाबाजी महाराज यह कह चुके तब मैंने नम्रतापूर्वक मायाचारी वाक्योंसे यह निवेदन किया कि 'महाराज ! मैं तो आपके द्वारा निरपराधी हो चुका, अब आप यह पत्र न डालें और आपको जब मेरे ऊपर दया है तब मेरा पठन-पाठन भी असाध्य नहीं। मैं आपका आभारी हूँ। बाबाजी बोले-'तुम्हें बोलनेका अधिकार नहीं।' अनन्तर मैंने जो पत्र चपरासीके हाथसे लिया था उसे हाथमें लेकर बाबाजीसे निवेदन किया-'महाराज ! यदि आप मेरे अपराधको क्षमा कर दें तो कुछ कहूँ।' महाराज बोले-'अच्छा कहो।' मैं बोला-'महाराज ! आपने जो पत्र चपरासीके हाथ पोस्ट आफिसमें डालनेके लिये दिया था उसे मैंने किसी प्रकार उससे ले लिया था। प्रथम तो उस चपरासीका अपराध क्षमा किया जावे, क्योंकि मैंने उसके साथ बहुत ही मायाचारीका व्यवहार किया, परन्तु उसने दया कर मुझे दे दिया। यह पत्र जो कि मेरे हाथमें है वही है लीजिये, आपके श्रीचरणोंमें समर्पित करता हूँ तथा इस अपराधका दण्ड चाहता हूँ| बहुत भारी अपराध मैंने किया कि इस प्रकार आपके पत्रको मैंने दूसरेसे ले लिया। ऐसा भयंकर आदमी न जाने कब क्या कर बैठे ?................ यह आपके मनमें शंका हो सकती है, परन्तु महाराज ! बात तो असलमें यह है कि मुझे विश्वास था-आप दयालु प्रकृतिके हैं। यदि मैं नम्र शब्दोंमें इनके समक्ष प्रार्थना करूँगा तो बाबाजी महाराज क्षमा देनेमें विलम्ब न करेंगे। अन्तमें वही हुआ। अब पत्र डालनेकी आवश्यकता नहीं और न आपको अधिष्ठाता पदके त्यागकी इच्छा करना भी उचित है।' बाबाजी मेरे वाक्योंको सुनकर प्रथम तो कुछ ध्यानस्थ रहे। बादमें बोले कि-'आपत्ति कालमें मनुष्य क्या-क्या नहीं करता..........इसका आज प्रत्यक्ष हो गया। धिक्कार इस संसारको जो कपटमय व्यवहारसे पूर्ण है। भाई ! मैं तो माफी दे चुका, अब यदि दण्ड देता हूँ तो यह सब विवरण लिखना होगा, अन्ततोगत्वा तुम सदा अपराधी समझे जाओगे और मैं भी अयोग्य शासक । अतः अब न तो तुम्हें दण्ड देनेके भाव हैं और न ही इस पद पर मेरी काम करनेकी इच्छा है। मैं तुम्हें परम मित्र समझता हूँ, क्योंकि तुम्हारे ही निमित्तसे आज मैंने आत्मीय पदको समझा है। भविष्यमें कभी किसी संस्थाके अध्यक्षका पद ग्रहण न करूँगा और इस पदसे आज ही इस्तीफा देता हूँ| चूँकि तुम मेरे परम मित्र हो, अतः तुम्हें भी यह शिक्षा देता हूँ कि परोपकार करना, परन्तु अध्यक्ष न बनना, आगे, तुम्हारी जो इच्छा हो सो करना। अभी इस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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