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________________ मेरी जीवनगाथा 86 कहा-'महाराज ! आप जानते हैं मेरा तो सर्वनाश हो रहा है आपकी तो दो घण्टा ही रात्रि गई। आखिर बोलना ही पड़ा। मैंने कहा 'अपराधिनि चेत्क्रोधः क्रोधे क्रोधः कथं न हि। धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुर्णां परिपन्थिनि।।' किसी कविने कहा है-'यदि अपराधी व्यक्ति पर क्रोध करते हो तो सबसे बड़ा अपराधी क्रोध है, क्योंकि वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका शत्र है। उसीपर क्रोध करना चाहिये। कहनेका तात्पर्य यह है कि मैं आपके ऊपर क्रोध कर रहा हूँ और उसी कारण आप मुझे यहाँसे पृथक कर रहे हैं, परन्तु सबसे बड़ा अपराध तो क्रोध है। वही मेरे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सबका नाश कर देगा। अत: महाराज ! मैं सानन्द यहाँसे जाता हूँ| न आपके ऊपर मेरा कोई वैरभाव है और न छात्रोंके ही ऊपर । बोलो श्रीमहावीर स्वामीकी जय । अन्तमें महाराजजीको प्रणाम और छात्रोंको सस्नेह जयजिनेन्द्र कर जब चलने लगा, तब नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगा। न जाने बाबाजीको कहाँसे दयाने आ दबाया। आप सहसा बोल उठे-'तुम्हारा अपराध क्षमा किया जाता है तथा इस आनन्दमें कल विशेष भोजन खिलाया जावेगा। मैंने भूली हुई बातकी याद दिलाते हुए कहा-'महाराज ! यह सब तो ठीक है परन्तु जो लिफाफा आरा गया है उसका क्या होगा ? अतः मैं अन्तिम प्रणाम कर जाता हूँ, इसी प्रकार मेरे ऊपर कृपा रखना, संसारमें उदयकी बलबत्ता द्वारा अच्छे-अच्छे महानुभाव आपत्तिके जालमें फँस जाते हैं, मैं तो कोई महान् व्यक्ति नहीं।' बाबाजी महाराज चुप रहे और कुछ देर बाद कहने लगे 'बात तो ठीक है, परन्तु हम तुम्हारा अपराध क्षमा कर चुके । बादमें सुपरिन्टेन्डेन्ट साहबसे कहने लगे कि दवात कलम लाओ। और एक पत्र फिर मंत्रीजीको लिख दो कि आज मैंने गणेशप्रसादको पाठशालासे पृथक् करनेकी आज्ञा दी थी और उसका पत्र भी आपको डाल चुका था, परन्तु जब यह जाने लगा और सब छात्रोंसे माफी माँगनेके लिये व्याख्यान देने लगा तब मेरा चित्त द्रवीभूत हो गया, अतः मैंने इसका अपराध क्षमा कर दिया तथा प्रसन्न होकर दूसरे दिन विशिष्ट भोजनकी आज्ञा दी। अब आप प्रथम पत्रको मिथ्या मानना और नवीन पत्रको सत्य समझना। इस विषयमें कोई सन्देह नहीं करना, हम लोग त्यागी हैं-हमारी कषाय गृहस्थोंके सदृश स्थायी नहीं रहती। और चूँकि ऐसा करनेमें प्रबन्धमें गड़बड़ी हो जानेकी सम्भावना है, अतः आपको चाहिये कि मेरे स्थानपर अन्यको अधिष्ठाता बनावें।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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