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महान् प्रायश्चित
लिखा जावेगा कि बाबा भागीरथजीकी अध्यक्षतामें गणेशप्रसादको अमुक अपराध ामें पृथक् किया गया। अब मैं क्या प्रार्थना करूँ कि मेरा अपराध क्षमा कीजिये । यदि कोई अन्य होता तो उसकी अपील भी करता । परन्तु यह तो निरपेक्ष साधु ठहरे, इनकी अपील किससे की जावे । केवल अपने परिणामों द्वारा अपने ही से अपील करता हूँ ।
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महान् प्रायश्चित्त
'हे आत्मन् ! यदि तूने पृथक् होने योग्य अपराध किया है तो व्याख्यान समाप्त होनेके बाद सबसे क्षमा याचना कर इसी समय यहाँसे चला जाना और यदि ऐसा अपराध नहीं है कि तू पृथक् किया जावे तो बाबाजीके श्रीमुखसे यह ध्वनि निकले कि तुम्हारा अपराध क्षमा किया जाता है, भविष्यमें ऐसा अपराध न करना. ......' इत्यादि विकल्प मनमें हो ही रहे थे कि बाबाजी उच्च स्वरसे बोल उठे - बैठ जाओ समय हो गया, १५ मिनटके स्थान पर ३० मिनट ले लिये।' मैंने नम्रताके साथ कहा - 'महाराज ! बैठ जाता हूँ, अब तो जाता ही हूँ, इतनी नाराजी क्यों प्रदर्शित करते हैं, मुझे एक श्लोक याद आ गया है, यदि आज्ञा हो, तो कह दूँ।' 'लज्जा नहीं आती, जो मनमें आया सो बोल दिया । व्याख्यान देनेकी भी कला है, अभी कुछ दिन सीखो। आजकल विद्यालयमें एक यह रोग लग गया है कि छात्रगणोंसे व्याख्यान देनेका भी अभ्यास कराया जाता है, शास्त्रप्रवचन कराया जाता है, व्याख्यानकी भी मुख्यता हो रही है। पाठ्यपुस्तकोंका अभ्यास हो, चाहे न हो, पर यह विषय होना ही चाहिये । अच्छा, कह लो अन्तिम समय है फिर यह अवसर न आवेगा.......... बाबाजीने उपेक्षाभावसे कहा। मैंने कहा - 'महाराज ! यह नहीं कहिये । नहीं I मालूम अन्तमें क्या हो ? इसका निश्चय न तो आपको है और न मुझे ही । मरते मरते हेमगर्भ दिया जाता है, कौन जाने बच जावे, अतः यह कहना आप जैसे त्यागी विवेकी पुरुषों द्वारा अच्छा नहीं लगता कि अन्तिम समय है जो कुछ कहना हो कह लो।' बाबाजी महाराज बोले- 'रात्रि अधिक हो गई, सब छात्रोंको निद्रा आती है । यदि जल्दी न बोलोगे तो सभा भंग कर दी जावेगी।' मैं बोला'महाराज ! इन छात्रोंको तो आज ही निद्रा जानेका कष्ट है, परन्तु मेरी तो सर्वदाके लिये निद्रा भंग हो गई। तथा आपने कहा कि रात्रि बहुत हो गई सो ठीक है, परन्तु रात्रिके बाद दिन तो आवेगा, मुझे तो सदाके लिए रात्रि हो गई।' बाबाजी बोले- 'बोलता क्यों नहीं, व्यर्थकी बहस करता है।' मैंने
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