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मेरी जीवनगाथा
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रावण तथा उसके अनुयायीवर्गकी निन्दा की। यह बात प्रत्येक दर्शकके हृदयमें समा गई कि परस्त्रीविषयक इच्छा सर्वनाशका कारण होता है। जैसा कहा भी
'जाही पाप रावणके न छीना रही भौना मांहि।
ताही पाप लोकन खिलौना कर राख्यौ है।। इत्यादि लोगोंमें परस्पर वार्तालाप होती थी। यह बात, जिसने उस. समयका दृश्य देखा, वही जानता है। मेरे कोमल हृदयमें तो यह अच्छी तरह समा गया कि पाप करना सर्वथा हेय है। इस रामायणके बाँचनेसे यही शिक्षा मिलती है कि रामचन्द्रजीके सदृश व्यवहार करना, रावणके सदृश असत्कार्यमें नहीं पड़ना। जो श्री रामचन्द्रजी महाराजका अनुकरण करेगा वही संसारमें विजयी होगा और जो रावणके सदृश व्यवहार करेगा वह अधःपतनका भागी होगा, इत्यादि शिक्षाको लेकर आ रहा था और यह सोच-सोचकर मनमें फूला न समाता था कि बाबाजी महाराजको आजके दृश्यका समाचार सुना कर कुछ विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त करूँगा। पर यहाँ आकर विपरीत ही फल पाया। 'गये तो छब्बे होनेको पर रह गये दुबे' या पांसा पाड़ते समय इरादा तो किया था 'पौ बारह आवें पर आ गये तीन काना। अस्तु, किसीका दोष नहीं, अपने कर्तव्यका फल पाया, परन्तु 'ककरीके चोरको कटार मारिये नहीं' इसे महाराज एकदम भूल गये। आप लोग ही बतायें कि मैंने ऐसा कौन-सा अपराध किया कि पाठशाला से निकाला जाऊँ, आप सबने इस विषयमें बाबाजीसे अणुमात्र भी प्रार्थना न की कि महाराज ! इतना दण्ड देना उचित नहीं। आखिर यही न्याय किसी दिन आपके ऊपर भी तो होगा। आप लोग साधु तो है नहीं कि किसी तमाशा आदिको देखने न जाते हों, परन्तु बलवान्के समक्ष किसी की हिम्मत नहीं पड़ती।
बाबाजीका यह कहना है कि यदि नौका डूब जाती तो क्या होता? सो प्रथम तो वह डूबी नहीं, अतः अब वह सम्भावना करना व्यर्थ ही है। हाँ, हमारा दण्ड करना था, जिससे भविष्यमें यह अपराध नहीं करते और विद्याध्ययनमें उपयोग लगाते। परन्तु बाबाजी क्या करें ? हमारा तीव्र पापका उदय आ गया, जिससे बाबाजी जैसे निर्मल और सरल परिणामी भी न्यायमार्गकी अवहेलना कर गये। यह मेरा हतभाग्य ही है कि जो मैं एक दिन स्याद्वाद विद्यालयके प्रारम्भमें बाबाजीको बनारस बुलानेमें निमित्त था और निमन्त्रण पत्रिकामें बाबाजीके नीचे जिसका नाम भी था, आज वार्षिक रिपोर्टमें उसी मेरे लिये
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