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________________ छात्रसभामें मेरा भाषण 83 कि रावणने श्रीरामचन्द्रजी महाराजकी सीताका अपहरण किया, अतः वह चोर था, तथा उसके भाव मलिन थे, निन्द्य थे, जो मन्दोदरी आदि अनेक विद्याधरी महिलाओंके रहने पर भी सीताको बलात्कार ले गया । I पापके सुनते ही मनुष्यकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। जटायु पक्षीने अपनी चोंचसे सीताजीकी रक्षा करनी चाही, परन्तु उस दुष्टने अनाथ पक्षीपर भी आघात कर दिया । इस महापापका फल यह हुआ कि पुरुषोत्तम रामचन्द्रजीके द्वारा एक महाप्रतापी रावणका घात हुआ । यह कथा रामायणकी है । हमारे यहाँ रावणका घात श्रीलक्ष्मणके चक्र द्वारा हुआ । यह चक्र रावणका ही था । जब उसके समस्त अस्त्र-शस्त्र विफल हो चुके तब अन्तमें उसने इस महाशस्त्र- चक्रका उपयोग लक्ष्मणपर किया, परन्तु श्रीलक्ष्मणके प्रबल - पुण्यसे वह चक्र इनके हाथमें आ गया। उस समय श्रीरामचन्द्रजी महाराजने अति सरल-निष्कपटमधुर - परहित रत वचनोंके द्वारा रावणको सम्बोधन कर यह कहा कि 'हे रावण ! अब भी कुछ नहीं गया । अपना चक्ररत्न वापिस ले लो। आपका राज्य है, अतः सब ही वापिस लो। आपके भ्राता कुम्भकर्ण आदि तथा पुत्र मेघनाद् आदि जो हमारे यहाँ बन्दीरूपमें हैं उन्हें वापिस ले जाओ। आपका जो भाई विभीषण हमारे पक्षमें आ गया है उसे भी सहर्ष ले जाओ। केवल सीताको दे दो। जो नरसंहारादि तुम्हारे निमित्तसे हुआ है उसकी भी हम अब समालोचना नहीं करना चाहते। हम सीताको लेकर किसी वनमें कुटी बनाकर निवास करेंगे और तुम अपने राजमहल में मन्दोदरी आदि पट्टरानियोंके साथ आनन्दसे जीवन बिताओ। हजारों स्त्रियोंको वैधव्यका अवसर मत आने दो। आशा है हमारे प्रस्तावको अंगीकार कर उभय लोकमें यशके भागी बनोगे ।' रावण महाराज रामचन्द्रजीका यह भाषण सुनकर आगबबूला हो गया और कहने लगा कि आपने यह कुम्भकारका चक्र पाकर इतने अभिमानसे सम्भाषण किया ? आपकी जो इच्छा हो सो करो। रावण कभी भी नतमस्तक नहीं हो सकता - 'महतां हि मानं धनम् ।' हमको मरना स्वीकार है, परन्तु आपके सामने नतमस्तक होना स्वीकार नहीं । जो लक्ष्मणकी इच्छा हो उसे करे । इसके बाद जो हुआ सो आप जानते ही हैं । यह कथा छात्रोंसे कही और बाबाजी महाराजसे कहा कि 'आज इस रामलीलाको देखकर मेरे मनमें यह भावना हो गई कि पापके फलसे कितना ही वैभवशाली क्यों न हो अन्तमें पराजित हो ही जाता है। जितने दर्शक थे सबने रामचन्द्रजीकी प्रशंसा की और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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