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________________ मेरी जीवनगाथा पाठशाला विद्यालयके रूपमें परिणत हो गई, जिन ग्रन्थोंके नाम सुनते थे वे आज पठन-पाठनमें आगये। जैसे आप्तमीमांसा, आप्तपरीक्षा, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री, साहित्यमें चन्द्रप्रभ, धर्मशर्माभ्युदय, यशस्तिलकचम्पू आदि इन सबके प्रचारसे यह लाभ हुआ कि जहाँ काशीमें जैनियोंके नामसे पण्डितगण नास्तिक शब्दका प्रयोग कर बैठते थे आज उन्हीं लोगों द्वारा यह कहते सुना जाता है कि जैनियोंमें प्रत्येक विषयका उच्चकोटिका साहित्य विद्यमान है। हम लोग इनकी व्यर्थ ही नास्तिकोंमें गणना करते थे। इनके यहाँ परमात्माका स्वरूप बहुत ही विशेषरूपसे प्रतिपादित किया गया है। न्यायशास्त्रमें तो इनकी वर्णनशैली कितनी गम्भीर और सरल है कि जिसको देखते ही जैनाचार्योंके पाण्डित्यकी प्रशंसा बृहस्पति भी करना चाहे तो नहीं कर सकता। अध्यात्मका वर्णन वर्णनातीत है......यह सब आप छात्र तथा बाबाजीका उपकार है, जिसे समाजको हृदयसे मानना चाहिये। मैं बाबाजीको कोटिशः धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने अपने धर्मध्यानके कालको गौणकर दिल्ली प्रान्तसे पाठशालाको धनकी महती सहायता पहुँचाई। इतना ही उपकार आपका नहीं, किन्तु बहुत काल यहाँ रहकर छात्रोंको सच्चरित बनानेमें आप सहयोग भी देते हैं। यह ही नहीं, आपके द्वारा जो यात्रीगण पाठशालाका निरीक्षण करनेके लिये आते हैं उन्हें संस्थाका परिचय देकर उनसे सहायता भी कराते हैं। आपका छात्रों से लेकर अध्यापकवर्ग तथा समस्त कर्मचारीवर्गके साथ समान प्रेम रहता है। मेरे साथ तो आपका सर्वदा स्नेहमय व्यवहार रहा, परन्तु अब ऐसा अभाग्योदय आया कि आपने एकदम मुझे पाठशालासे पृथक् कर दिया। ___ बन्धुवर ! यहाँ पर मुझे दो शब्द कहना है, आशा है आप लोग उन्हें ध्यानपूर्वक श्रवण करेंगे। मैंने इस योग्य अपराध नहीं किया कि निकाला जाऊँ ! प्रथम तो मैंने आज्ञा ले ली थी। हाँ, इतनी गलती अवश्य हुई कि सामायिकके पहले नहीं ली थी। फिर भी इस बातकी चेष्टा की थी कि, सुपरिन्टेन्डेन्ट साहबसे आज्ञा ले लूँ, परन्तु वे समय पर उपस्थित न थे अतः मैं बिना किसीकी आज्ञाके ही चला गया। . आज रामलीलाका अन्तिम दिन था। रामचन्द्रजी रावणपर विजय प्राप्त करेंगे, यह देखना अभीष्ट था और इसका अभिप्राय यह था कि इतना वैभव-शक्तिशाली रावण श्रीरामचन्द्रजीसे किस प्रकार परास्त होता है। मैंने वहाँ जाकर देखा कि रामके द्वारा रावण पराजित हुआ। मैंने तो यह अनुभव किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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