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________________ छात्रसभामें मेरा भाषण 79 आपही के ऊपर छोड़ते हैं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं, सर्वज्ञ ही नहीं, सबके ईश हैं, ईश ही नहीं, कृपावान् भी हैं। यदि केवल जाननेवाले होते तो हम प्रार्थना न करते। आप जाननेवाले भी हैं और तीर्थंकर प्रकृतिके उदयसे मोक्षमार्गके नेता भी। आशा है मेरी प्रार्थना निष्फल न होगी।' 'महानुभाव बाबाजी महोदय ! श्रीसुपरिन्टेन्डेन्ट महाशय ! तथा छात्रवर्ग ! मैं आपके समक्ष भव्य भावनासे प्रेरित होकर कुछ कहनेका साहस करता हूँ। यद्यपि सम्भव है कि मेरा कहना आपको यथार्थ प्रतीत न हो, क्योंकि मैं अपराधी हूँ, परन्तु यह कोई नियम नहीं कि अपराधी सदैव अपराधी ही बना रहे। जिस समय मैंने अपराध किया था उस समय अपराधी था, न कि इस समय भी। इस समय तो मैं भाषण करनेके लिये मञ्च पर खड़ा हूँ अतः वक्ता हूँ, इस समय जो भी कहूँगा, विचार पूर्वक ही कहूँगा। पहले मैंने इष्टदेवको नमस्कार किया। उसका यह तात्पर्य है कि मेरे विध्न पलायमान हों, क्योंकि मंगलाचरणका करना विघ्न विनाशक है। आप लोग यह न समझें कि मैं यहाँसे जो पृथक किया जानेवाला हूँ वह विघ्न न आवे। वह तो कोई विघ्न नहीं, ऐसे विघ्न तो असाता कर्मके उदयसे आते हैं और असाता कर्मकी गणना अघातिया कर्ममें है वह आत्मगुणघातक नहीं। उस विघ्नसे हमारी कोई क्षति नहीं। कल्पना करो कि यहाँसे पृथक हो गये-क्षेत्रान्तर चले गये। इसका यह अर्थ नहीं कि बनारससे ही चले गये। यहाँसे जाकर भेलूपुर ठहर सकते हैं और वहाँ रहकर भी अभ्यास कर सकते हैं। मंगलाचरण इसलिए किया है कि मैं बाबाजीके प्रति शत्रत्वका भाव न रखं, क्योंकि वे मेरे परम मित्र हैं। ऐसी अवस्थामें उनसे मेरा बैरभाव हो सकता है, वह न हो, इसीलिये मंगलाचरण किया है। आप इससे यह व्यङ्ग्य भी न निकालना कि बाबाजी महाराज! आप मेरे अवगुणोंको जानते हैं, मेरे स्वामी भी हैं और साथ ही दयालु भी, अतः मेरा अपराध क्षमा कर निकालनेकी आज्ञाको वापिस ले लेवें....कदापि मेरा यह अभिप्राय नहीं है। जैनधर्म तो इतना विशाल और विशद है कि परमार्थ दृष्टिसे परमात्मासे भी याचना नहीं करता, क्योंकि जैन सम्मत परमात्मा वीतराग सर्वज्ञ है। अब आप ही बतलावें कि जहाँ परमात्मामें वीतरागता है वहाँ याचनासे क्या मिलेगा ? फिर कदाचित् आप लोग यह शंका करें कि मंगलाचरण क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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