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________________ 78 मेरी जीवनगाथा आया है।' 'अच्छा महाराज ! जाता हूँ....' कहकर शीघ्र ही बाहर आया और चपरासीसे, जो कि बाबाजीकी चिट्ठी डाकमें डालनेके लिए जा रहा था, मैंने कहा 'भाई क्यों चिट्ठी डालते हो, बाबाजी महाराज तो क्षणिक रुष्ट हैं, अभी प्रसन्न हो जावेंगे, यह एक रुपया मिठाई खानेको लो और चिट्ठी हमें दे दो । वह भला आदमी था, चिट्ठी हमें दे दी और दस मिनट बाद आकर बाबाजीसे कह दिया कि 'चिट्ठी डाल आया हूँ।' बाबाजी बोले- 'अच्छा किया पाप कटा ।' मैं इन विरुद्ध वाक्योंको श्रवण कर सहम गया । हे भगवन् ! क्या आपत्ति आई जो मुझे हार्दिक स्नेह करते थे, आज उन्हींके श्रीमुखसे यह निकले कि पाप कटा, अर्थात् यह इस स्थानसे चला जावेगा तो पाठशाला शान्तिसे चलेगी । छात्रसभामें मेरा भाषण मैंने कहा - 'महाराज ! प्रणाम, अब जाता हूँ। क्या मैं छात्र गणोंसे अन्तिम क्षमा माँग सकता हूँ । यदि आज्ञा हो तो छात्रसमुदायमें कुछ भाषण करूँ और चला जाऊँ ।' बाबाजीने कुछ उदासीनतासे कहा- 'अच्छा, जो कहना हो शीघ्रता से कहकर १५ मिनटमें चले जाना ।' घण्टी बजी, सब छात्र एकत्र हो गये, एक छात्रने मंगलाचरण किया । मैंने कहा - 'सनियम सभा होनेकी आवश्यकता है अतः एक सभापति अवश्य होना चाहिये, अन्यथा हुल्लड़बाजी होनेकी सम्भावना है। एक छात्रने प्रस्ताव किया कि सभापतिका आसन श्रीयुत पूज्य बाबाजी ग्रहण करें, एकने समर्थन किया, सबने अनुमोदना की, मैं विरोधमें रहा, परन्तु मेरी कौन सुनता था, क्योंकि मैं अपराधी था । मैंने बाबाजी महाराजसे अनुमति माँगी, उन्होंने कहा - '१५ मिनट भाषण करके चले जाओ।' 'चले जाओ' शब्द सुनकर बहुत खिन्न हुआ । अन्तमें साहस बटोर कर भाषण करनेके लिये खड़ा हुआ । प्रथम ही मंगलाचरणका पाठ किया 'जानासि त्वं मम भवभवे यच्च यादृक् च दुःखं, जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवन्निष्पिनष्टि । त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या, यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ।। 'हे भगवन् ! हमको भवभवमें जो जिस प्रकारके दुःख हुए हैं उन्हें आप जानते हैं, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं । यदि उन दुःखों का स्मरण किया जावे तो शस्त्रके घाव सदृश पीड़ा देते हैं, अतः इस विषयमें क्या करना चाहिये ? वह www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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