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अधिष्ठाता बाबा भागीरथजी
डगमगाने लगी, दैवयोगसे बचकर आया, अतः ऐसे उद्दण्ड छात्रको रखना पाठशालाको कलंकित करना है। यह सब सोचकर आज रात्रिके ११ बजे इसे पृथक् करते हैं। आपके मनमें यह है .... ऐसा मुझे भान होता है।' बाबाजीने कुछ विस्मयके साथ कहा कि 'अक्षरशः सत्य कहते हो ।'
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उन्होंने सुपरिन्टेन्डेन्ट साहबको बुलवाया और शीघ्र ही जैसा मैंने कहा था वैसा ही आनुपूर्वी पत्र लिखकर उसी समय लिफाफामें बन्द किया और उसके ऊपर लेटफीस लगाकर चपरासीके हाथमें देते हुए कहा कि "तुम इसे इसी समय पोस्टआफिसमें डाल आओ।" मैंने बहुत ही विनयके साथ प्रार्थना की कि महाराज ! अबकी बार माफी दी जावे, आयति - कालमें अब ऐसा अपराध न होगा । यहाँसे पृथक् होने पर मेरा पढ़ना-लिखना सब चला जायेगा । अनजान मनुष्यसे अपराध होता है और महाराज ! आपसे ज्ञानी महात्मा उसे क्षमा करते हैं। आप महात्मा हैं, हम क्षुद्र छात्र हैं । यदि क्षुद्र प्रकृतिके न होते तो आपकी शरणमें न आते । हमने कोई अनाचार तो किया नहीं, रामलीला ही तो देखने गये थे। यदि अपराध न करते तो यह नौबत न आती ।' महाराजने यही उत्तर दिया कि अपील कर लेना । मैंने कहा - 'न मुझे अपील करना है और न सपील। जो कुछ कहना था आपसे निवेदन कर दिया यदि आपके दयाका संचार हो तो' हमारा काम बन जावे, अन्यथा जो श्री वीरप्रभुने देखा होगा वही .
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। बाबाजीने बीचमें ही रोकते हुए कहा - 'चुप रहो, न्यायमें अनुचित दया नहीं होती । यदि अनुचित दयाका प्रयोग किया जावे तो संसार कुमार्गरत हो जावे, समाजका बन्धन टूट जावे । प्रबन्धकर्ताओंको बड़े-बड़े अवसर आते हैं। यदि वे दयावश न्यायमार्गका उल्लंघन करने लग जावें तो कोई भी कार्य व्यवस्थित नहीं चल सकते। मैंने कहा - 'महाराज ! अब तो एक बार क्षमा कर दीजिए, क्या अपवाद - शास्त्र नहीं होता ? बाबाजी एकदम गरम हो गये - जोरसे बोले- 'तुम बड़े नालायक हो यदि अब बहुत बकबक किया तो बेत लगाके निकलवा दूँगा। तुम नहीं जानते, मेरा नाम भागीरथ है । और मैं व्रजका रहनेवाला हूँ । अब तुम्हारी इसीमें भलाई है कि यहाँसे चले जाओ।' मैंने कुछ हुए स्वरमें कहा - 'महाराज ! जितनी न्यायकी व्यवस्था है वह मेरे ही वास्ते थी ? अच्छा, जो आपकी इच्छा। मैं जाता हूँ किन्तु एक बात कहता हूँ कि आप पीछे पछतावेंगे।'
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बाबाजी
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बीचमें ही बात काट कर कहा - 'चुप रहो, उपदेश देने
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