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________________ मेरी जीवनगाथा 76 हुआ है, अतः क्षमा की भिक्षा माँगता हूँ।' महाराज बोले-'यदि नौका डूब जाती तो क्या होता ?' मैंने कहा-'प्राण जाते।' उन्होंने कहा-'फिर क्या होता ?' मैंने मुसकराते हुए कहा-'महाराज ! जब हमारे प्राण ही जाते तब क्या होता, वह आप जानते या जो यहाँ रहते वे जानते, मैं क्या कहूँ ?' 'इस गुस्ताखीसे पेश आते हो.........महाराजने उच्च स्वरमें कहा। मैंने कहा-'महाराज ! मैं क्या मिथ्या उत्तर देता, भला आप ही बतलाइये जब मैं डूब जाता तब उत्तर कालकी बात कैसे कहता ? हाँ, अब जीवित बच गया हूँ। यदि आप पूछे कि अब क्या होगा? तो उत्तर दे सकता हूँ?' उन्होंने उपेक्षा भावसे पूछा-'अच्छा, अब क्या होगा ? बताओ।' मुझे कह आया कि 'महाराज ! मैं निमित्तज्ञानी नहीं, अवधिज्ञानी भी नहीं तब क्या उत्तर , कि क्या होगा !' बाबाजीने उच्च स्वरमें कहा-'बड़े चालाक हो, ठीक-ठीक बोलते भी नहीं, अपराध करो और विनयके साथ उत्तर भी न दो।' मैंने साहसके साथ कहा-'महाराज! आप ही कहिये-मैंने कौन-सी उद्दण्डता की। यही तो कहा कि मैं क्या जानूँ ?' मैं मनःपर्ययज्ञानी तो नहीं कि हृदयकी बात बता सकूँ। हाँ, मेरे मनमें जो विकल्प हुआ है उसे बता सकता हूँ, क्योंकि यह मेरे मानस प्रत्यक्ष का विषय है और आपके मनमें जो है वह आपकी बाह्य चेष्टासे अनुमित हो रहा है। यदि आज्ञा हो तो कह दूँ।' अच्छा कहो......बाबाजीने शान्त होकर कहा। मैं कहने लगा-'मेरे मनमें तो यह विकल्प आया कि आज तुमने महान् अपराध किया है जो बाबाजीकी आज्ञा के बिना रामलीला देखनेके लिये रामनगर गये। यदि आज नौका डूब जाती तो पाठशालाध्यक्षोंकी कितनी निन्दा होती ? अतः इस अपराधमें बाबाजी तुम्हें पाठशालासे निकाल देवेंगे। तुम धोबीके कुत्ते जैसे हुए-न घरके न घाटके। फिर भी विचार किया कि एक बार बाबाजीसे अपराध क्षमाकी प्रार्थना करो, संभव है, वे दयाल हैं अतः अपराधका दण्ड देकर क्षमा कर देवें........ | यह विकल्प तो मेरे मनमें आया और आपकी आकृति देखनेसे यह निश्चय होता है कि इस अपराधका मूल कारण यही छात्र है। इसे इस पाठशालासे पृथक् कर दिया जावे। शेष छात्रोंका उतना अपराध नहीं, वे तो इसीके बहकाये चले गये, अतः उन छात्रोंका केवल एक मासका ही जुर्माना किया जावे। परन्तु यह बहुत बातें बनायेगा, अतः सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब अभी दवात-कलम-कागज लाओ और पं. जैनेन्द्रकिशोरजी मंत्री आराको एक पत्र लिखो कि आज गणेशपसाद छात्रने महती गलती की अर्थात् गंगामें रामनगर गया, बीचमें पहुँचते ही नौका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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