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________________ अधिष्ठाता बाबा भागीरथजी 75 लगा था तथापि भयभीत अवश्य रहता था। एक दिनकी बात है-बनारसके पास गंगाके उस पार रामनगर है। वहाँ पर महाराज बनारस रहते हैं। गंगाके तट पर आपका महल है। आपके रामनगरमें आश्विन मास भर रामलीला होती है और उसमें १००००) रु. खर्च होता है। अयोध्या आदिसे बड़ी-बड़ी साधुमण्डली आती है। आश्विन सुदि ६ को मेरे मनमें आया कि रामलीला देखनेके लिये रामनगर जाऊँ। सैंकड़ों नौकाएँ गंगामें रामनगरको जा रही थीं, मैंने भी जानेका विचार लिया। ५ या ६ छात्रोंको भी साथमें ले लिया। उचित तो यह था कि बाबाजी महाराजसे आज्ञा लेकर जाता, परन्तु महाराज सामायिकके लिये बैठ गये, बोल नहीं सकते थे। अतः मैंने सामने खड़े होकर प्रणाम किया और निवेदन किया कि 'महाराज ! आज रामलीला देखनेके लिये रामनगर जाते हैं, आप सामायिकमें बैठ चुके, अतः आज्ञा न ले सके। वहाँसे शनैः शनैः गंगाघाट पर पहुँचे और नौकामें बैठ गये। नौका गंगाजीमें मल्लाह द्वारा चलने लगी। नौका घाटसे कुछ ही दूर पहुंची थी कि इतनेमें वायुका वेग आया और नौका डगमगाने लगी। बाबाजीकी दृष्टि नौका पर गई और उनके निर्मल मनमें एकदम यह विकल्प उठा कि अब नौका डुबी। बड़ा अनर्थ हुआ, इस नादानको क्या सुझी ? जो आज इसने अपना सर्वनाश किया और छात्रोंका भी। हे भगवन् ! आप ही इस विध्नसे छात्रोंकी रक्षा कीजिये। माला भूल गये, सामायिकका यही एक विषय रह गया कि ये छात्र निर्विघ्न यहाँ लौट आवें, जिससे पाठशाला कलंकित न हो......इत्यादि विकल्पोंका पूरा करते-करते सामायिककाल पूर्ण किया। पश्चात् सुपरिन्टेन्डेन्टसे कहा कि 'तुमने क्यों जाने दिया ?' उन्होंने कहा कि 'महाराज ! हमें पता नहीं कब चले गये ?' इस प्रकार बाबाजीका, जितने कर्मचारी वहाँ थे, सबसे झड़प होती रही। इतनेमें रात्रिके १० बज गये, हम लोग रामनगरसे वापिस आ गये। आते ही साथ बाबाजीने कहा-'पण्डितजी ! कहाँ पधारे थे ?' यह शब्द सुनकर हम तो भयसे आवाक रह गये, महाराज कभी तो पण्डितजी कहते नहीं थे, आज कौन-सा गुरुतम अपराध हो गया, जिससे महाराज इतनी नाराजी प्रकट कर रहे हैं ?' मैंने कहा-'महाराज ! रामलीला देखने गये थे। उन्होंने कहा-'किससे छुट्टी लेकर गये थे ?' मैंने कहा-'उस समय सुपरिन्टेन्डेन्ट साहब तो मिले न थे और आप सामायिक करने लग गये थे, अतः आपको प्रणाम कर आज्ञा ले चला गया था। मुझसे अपराध अवश्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004000
Book TitleMeri Jivan Gatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2006
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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