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मेरी जीवनगाथा
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किया ? उसका उत्तर यह है कि यह सब निमित्तकारणकी अपेक्षा कर्तव्य है, न कि उपादानकी अपेक्षा। तथाहि
'इति स्तुतिं देव विधाय दैन्याद्,
वरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छाया तरुं संश्रयतः स्वतः स्यात्,
कश्छायया याचितयात्मलाभः ।। जब श्री धनंजय सेठ श्रीआदिनाथ स्वामीकी स्तुति कर चुके, तब अन्तमें कहते हैं कि हे देव ! इस प्रकार मैं आपकी स्तुति करके दीनतासे कुछ वर नहीं माँगता, क्योंकि वर वहाँ माँगा जाता है जहाँ मिलनेकी सम्भावना होती है। आप तो उपेक्षक हैं-अर्थात् आपके न राग है न द्वेष है-आपके भाव ही देनेके नहीं, क्योंकि जिसके भक्तमें अनुराग हो वह भक्तकी रक्षा करनेमें अपनी शक्तिका उपयोग कर सकता है, अतः आपसे याचना करना व्यर्थ है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यदि वस्तुकी परिस्थिति इस प्रकार है तो स्तुति करना निष्फल हुआ। सो नहीं, उसका उत्तर यह है कि जैसे जो मनुष्य छायावृक्षके नीचे बैठ गया उसे छायाका लाभ स्वयमेव हो रहा है, उसको वृक्षसे छायाकी याचना करना व्यर्थ है। यहाँपर विचार करो कि जो मनुष्य वृक्षके निम्न भागमें बैठा है उसे छाया स्वयमेव मिलती है क्योंकि सूर्यकी किरणोंके निमित्तसे प्रकाश परिणमन होता था वह किरणें वृक्षके द्वारा रुक गई, अतः वृक्षके तलकी भूमि स्वयमेव छायारूप परिणमनको प्राप्त हो गई। यद्यपि तथ्य यही है फिर भी यह व्यवहार होता है कि वृक्षकी छाया है। क्या यथार्थमें छाया वृक्षकी है ? छायारूप परिणमन तो भूमिका हुआ है। इसी प्रकार जब हम रुचिपूर्वक भगवान्को अपने ज्ञानका विषय बनाते हैं तब हमारा शुभोपयोग निर्मल होता है। उसके द्वारा पाप प्रकृतिका उदय मन्द पड़ जाता है अथवा अन्यन्त विशुद्ध परिणाम होनेसे पाप प्रकृतिका संक्रमण होकर पुण्यरूप परिणमन हो जाता है, परन्तु व्यवहार यही होता है कि प्रभु वीतराग द्वारा शुभ परिणाम हुए अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग शुभ परिणामोंमें निमित्त हुए। यद्यपि उन शुभ परिणामोंके द्वारा ही हमारा कोई अनिष्ट दूर होता है, परन्तु व्यवहार ऐसा ही होता है कि भगवान्ने हमारा संकट टाल दिया। जब कि यह सिद्धांत है तब हम आप लोगोंसे कदापि यह प्रार्थना नहीं कर सकते कि आप बाबाजीसे यह सिफारिश करें, कि वे हमारा अपराध क्षमा कर पाठशालामें ही रहनेकी अनुमति दे देवें, क्योंकि समयसारमें कहा है
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