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१२ : योगसार
शुद्ध पवित्र असा आत्माकू नाही जाण है, तब लग सारा क्रियाकांड वृथा है।
भावार्थ-आत्मज्ञान विनां बहिरात्माकी क्रियाकांड सकल निरर्थक है ॥ ३१॥
दोहा प्रणि' पावइ सग्ग जिउ' पावएँ परय-णिवासु ।
वे छंडिवि अप्पा मुणइ तउ लब्भइ' सिववासु ॥ ३२॥ अर्थ-हे जीव ! पुण्य प्रकृतिका बन्ध थको स्वर्गकी प्राप्ति होय अर पाप प्रकृति करि नरकका निवासका स्थान पावै है। अर दोऊ पुण्यपाप प्रकृतिकू छोड़ि अर शुद्ध आत्माकू अनुभव करै, तब मोक्षका वासकू प्राप्त होइ है ॥ ३२॥
- दोहा वउ तउ संजमु सीलु जिय' इउ सव्वई ववहारु । मोक्खहँ कारणु एक्कु मुणि जो तइलोइहरु सारु ॥ ३३ ॥
अर्थ-हे जीव ! व्रत तो बारा प्रकारका-पांच इंद्रियनिका रोकना, अर छठा मनका रोकना-यह छह प्रकारका तो इन्द्रिय संजम रूप व्रत; अर पांच थावरनिकी हिंसाका त्याग, अर एक त्रसकी हिंसाकी त्यागयह बारह प्रकारका संयम, अर बारह प्रकारका तप-अनशन, अवमोदर्य अर व्रतपरिसंख्यान, रसपरित्याग अर विविक्त शय्यासन अर कायक्लेश-छह प्रकारका यह बाह्य तप; अर छह प्रकारका ही अभ्यंतर तप–प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, ध्यान-ए बारह भेद रूप तप जाननां । अर संजम, शील-ए सारा व्यवहारनय करि मोक्षका कारण है, अर निश्चयनय करि एक तोन लोकविर्षे सारभूत मोक्षका कारण शुद्धात्माका अनुभव ही जाननां जोग्य है, उपादेय है, ग्रहण करने जोग्य है ॥ ३३ ॥ १. पुण्णई : मि० ।
७. सील : मि० । २. जिय : मि० ।
८. जिया : आ० । ३. पावइ : मि० ।
६. इय : मि० । ४. छंडेवि : मि० ।
१०. कारण : मि० । ५. लब्धइ : मि० ।
११. ऐक्क : मि०। ६. संजम : मि० ।
१२. नइनोइहु : मिः ।
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