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________________ योगसार : ११ अर्थ-जो तीन लोकके लोकनि करि ध्यावनें जोग्य जिन भगवान सो ही आप ( आत्म-) रूप है जैसे निश्चयनय कहै है, यामैं भ्रान्ति नांही। भावार्थ-यद्यपि व्यवहारनय करि संसारी अर सिद्ध आत्माविर्षे भेद है, तथापि निश्चयनय करि भेदस्वरूप कछू नांही है ॥ २८ ॥ होहा वय-तव-संयम-मूलगुण मूढहँ मोक्ख ण वुत्तु । जाव ण जाणइ इक्क परु' सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥ २९ ॥ अर्थ-मूढ़ जे है तिनिळू व्रत पंच कहिए महाव्रत पाँच, अर बारह प्रकार अनशनादिक तप, अर संजम सात प्रकार–सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, संयमासंयम, असंयम अर अठाइस मूलगुण अर पाँच सुमति ( समिति ), तोन गुप्ति-इनिळू मोक्षका कारण कह्या । परन्तु जितनैं एक शुद्ध स्वभावरूप परमात्मा नांहो जाण तब तक एह क्रियाकांडविर्षे हो लीन होय तो मोक्षकी प्राप्ति होतो नाही, असा जांननां ॥ २६ ॥ दोहा जो' णिम्मल अप्पा मुणइ वय-संजम-संजुत्तु। तो लहु पावइ सिद्धि-सुह" इउ जिणणाहहँ' वृत्त ॥ ३० ॥ अर्थ-जो निर्मल कर्मकलंक रहित शुद्ध आत्माकं व्रत, संजम, तप संयुक्त भया सन्ता जाने है तो शोघ्र हो सिद्ध सुखकुं प्राप्त होइ है, औसैं जिन भगवान कहै है ।। ३०॥ दोहा वयं तव संजमु सीलु जिय ए सव्व अकयत्थु । जाव ण जाणइ इक्क परु सुद्धउ भाउ पवित्तुर ॥ ३१॥ अर्थ-हे जोव ! व्रत, तप, संजम, सीलका पालनां-ए सर्व क्रिया वृथा है। जितने एक असहाय परम कहिए सकल पदार्थविर्षे सारभूत १. पर : आ० । ७. वउ : आ० । २. जइ : आ० । ८. संजम : मि० । ३. तउ : मि० । ६. सव्वे : मि० । ४. सुह : आ० । १०. भाव : मि० । ५. जिणणाह : मि० । ११. पवितु : मि० । ६. उत्त: आ०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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