SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार : १३ दोहा अप्पा अप्पइ जो मुणइ जो' परभाउ' चएइ। सो पावइ सिवपुर'-गमणु जिणवरु" एम' भणेइ ॥ ३४ ॥ अर्थ-जो पुरुष आपनैं आपविर्षे ही जाणें है, आप ही करि सो परभाव जे पर पुद्गल संयोग जनित जे भाव रागद्वेष मोहादिक तिनका त्याग करै है, सो पुरूष मोक्षरूप नगरविर्षे गमनकू प्राप्त होय है, जिन भगवान या प्रकार कहै है ॥ ३४ ॥ दोहा छह दव्वइँ जे जिण कहिया गव पयत्थ जे तत्त। विवहारेण य उत्तिया ते जाणियहि पयत्त ॥ ३५।। अर्थ-छह द्रव्य-जे जीवद्रव्य, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य अर पुद्गलद्रव्य-जे जिन भगवान कह्या; अर नव पदार्थ-जे जोव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप-एह नव पदार्थ जिन भगवान व्यवहारनय करि कह्या, ते पदार्थ जिन भगवान करि कह्या जांणनां जोग्य है ॥ ३५॥ दोहा सव्व अचेयण' जाणि जिय एक्क सचेयण सारु । जो जाणेविणु परम-मुणि लहु पावइ भवपारु ॥ ३६ ॥ अर्थ-ए छह द्रव्य, नव पदार्थ कहे ते सर्व अचेतन, हे जीव ! तूं जाणि, तिनविर्षे एक जोवद्रव्य सारभूत आदेय है, ताकू परम मुक्तिरूप जांणि करि मुनि है सो शीघ्र हो भव जो पंच परावर्तन रूप संसार ताके पारकू प्राप्त होय है। भावार्थ-सप्त तत्व, नव पदार्थ-इनिका स्वरूप जाणि अर सारभूत शुद्ध निजात्म तत्वकू अनुभव करि, ध्याय करि सर्व मुनीश्वर शीघ्र ही मुक्तिकू प्राप्त होय है ॥ ३६ ॥ १. सो : मि० । ७. पयत्थ : मि०। २. परभाव : मि० । ८. अचेयणि : मि० । ३. सिवपुरि : आ० । ६. सचेयण : मि० । ४. जिणवर : मि० । १०. सार : मि० । ५. ऐउ : मि० । ११. जावै : मि० । ६. दव्व : मि० । १२. पार : मि० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy