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________________ योगसार जबकि उपर्युक्त विद्वान् मात्र भाषा को आधार बनाकर अपनी बात कहते हैं । मेरा तो विचार यह है कि यतः अपभ्रंश, भाषा के रूप में ईसा की छठी शताब्दी में प्रतिष्ठित हो गई थी, अतः ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रंश भाषा में रचे गये ग्रन्थों में परमात्मप्रकाश और योगसार की रचना को स्वीकार करना युक्तियों से विपरीत नहीं है। एक अन्य बात यह भी कि उक्त कथन की पुष्टि में एक सबल प्रमाण हमारे समाने है, जो अकाट्य है। जब तक परमात्मप्रकाश के उक्त दोहा का उल्लेख किसी पूर्ववर्ती अन्य ग्रन्थ में नहीं मिल जाता है, जिसकी डॉ० कोछड़ ने सम्भावना प्रकट की है, तब तक उसे योगीन्दुदेव की रचना स्वीकार करना ही समीचीन होगा। कृतियाँ: योगीन्दुदेव के नाम से सामान्यतः निम्न रचनाओं का उल्लेख किया जाता है—१. परमात्मप्रकाश ( अपभ्रंश ), २. योगसार ( अपभ्रंश ), ३. नौकार श्रावकाचार अथवा सावयधम्मदोहा ( अपभ्रंश ), ४. अध्यात्मसंदोह (संस्कृत); ५. सुभाषिततंत्र ( संस्कृत), ६. तत्त्वार्थटीका ( संस्कृत ), ७. दोहा पाहुड ( अपभ्रंश), ८. अमृताशीति ( संस्कृत ) और ६. निजात्माष्टक ( प्राकृत)। इनमें से क्रमाङ्क ४ और ५ के सम्बन्ध में डॉ० उपाध्ये ने अनभिज्ञता प्रकट की है तथा क्रमाङ्क ६ के रचयिता के नाम सादृश्य मात्र के कारण उन्होंने योगीन्दुदेव की रचना होने में सन्देह व्यक्त किया है । क्रमाङ्क ३, ७, ८ और ६पर डॉ० उपाध्ये ने विस्तारपूर्वक ऊहापोह करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला है कि ये रचनाएँ योगीन्दुदेव की नहीं हैं। शेष परमात्मप्रकाश एवं योगसार-ये दो रचनाएँ ही ऐसी हैं, जिन्हें विषय वस्तु तथा वर्णन शैली आदि में साम्य होने के कारण डॉ० उपाध्ये ने प्रस्तुत योगीन्दुदेव की रचनाएँ होना स्वीकार किया है । पं० प्रकाश हितैषी शास्त्री ने भी डॉ० उपाध्ये के उपर्युक्त मत की पुष्टि की है। १. ( क ) परमात्मप्रकाश, प्रस्तावना ( हिन्दी अनुवाद : पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ), पृ० १२२-१२६ । ( ख ) क्षु० जिनेन्द्र वर्णी ने सुभाषिततंत्र के स्थान पर सुभाषितरत्नसंदोह एवं अध्यात्मसंदोह के स्थान पर स्वानुभवदर्पण नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। -द्रष्टव्य, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश; भाग ३, पृ० ४०१; 'योगेंदुदेव' शब्द २. परमात्मप्रकाश और उसके रचयिता, पृ० १८१। ( द्रष्टव्य; श्री १०८ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर स्मृतिग्रन्थ पृ० १७५ से १८१ तक संग्रहीत उपर्युक्त लेख ) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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