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________________ प्रस्तावना और अपने निष्कर्ष में लिखा है कि कुमार की कत्तिगेयाणुप्पेक्खा अपभ्रंश भाषा में नहीं लिखी गई है । अतः वर्तमानकाल तृतीय पुरुष के बहुवचन के रूप में 'णिसुणहि' और 'भावहि' उसमें जबरन घुस गये हैं, किन्तु योगसार में वे ही रूप ठीक हैं। दोनों पद्यों का आशय एक ही है, केवल दोहे को गाथा में परिवर्तित कर दिया है । अतः कुमार ने जोइन्दु के दोहे का अनुसरण किया है । क्योंकि जोइन्दु और कुमार में जोइन्दु प्राचीन हैं। ८, प्राकृत लक्षण के कर्ता चण्ड ने अपने सूत्र 'यथा तथा अनयोः स्थाने' के उदाहरण में निम्नलिखित दोहा उद्धृत किया है कालु लहेविणु जोइया जिम जिम मोहु गलेइ । तिम तिम दसणु लहइ जो णियमें अप्पु मुणेइ ॥ यह परमात्मप्रकाश के प्रथम अधिकार का ८५ वाँ दोहा है। यतः चण्ड के व्याकरण के व्यवस्थित रूप का समय ईसा की सातवीं शताब्दी के लगभग है, अतः परमात्मप्रकाश को प्राकृतलक्षण से पुराना मानना चाहिये। ___ उपर्युल्लिखित बिन्दुओं पर विचार करने के पश्चात् डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यतः योगीन्दु, कुन्दकुन्द के मोक्खपाहुड और पूज्यपाद के समाधिशतक के बहुत ऋणी हैं और कुन्दकुन्द का समय ईस्वी सन् के प्रारम्भ के लगभग है तथा पूज्यपाद का पाँचवीं शताब्दी के अन्तिम पाद से कुछ पूर्व । अतः परमात्मप्रकाश-समाधिशतक और प्राकृतलक्षण के मध्यकाल की रचना है । इसलिये योगीन्दु ईसा की छठी शताब्दी के विद्वान हैं । उपर्युक्त विद्वानों के विचारों का समग्र रूप से आकलन करने पर ज्ञात होता है कि डॉ० उपाध्ये के विचार काफी सुलझे हुये एवं स्पष्ट हैं। अतः इस प्रसङ्ग में हिन्दी साहित्य के विद्वान् डॉ० हरिवंश कोछड़ का यह कथन कोई महत्त्व नहीं रखता है कि-"चण्ड के प्राकृतलक्षण में परमात्मप्रकाश का एक दोहा उद्धृत किया हुआ मिलता है, जिसके आधार पर डॉ० उपाध्ये योगीन्द्र ( योगीन्दु) का समय चण्ड से पूर्व ईसा की छठी शताब्दी मानते हैं, किन्तु सम्भव है कि वह दोहा दोनों ने किसी तीसरे स्रोत से लिया हो। इसलिये इस युक्ति से हम किसी निश्चित मत पर नहीं पहुँच सकते। भाषा के विचार से योगीन्दु का समय ८वीं-६वीं शताब्दी के लगभग प्रतीत होता है।" इसका प्रमुख कारण यह है कि डॉ० उपाध्ये ने अपने कथन की पुष्टि में चण्ड के प्राकृतलक्षण में उद्धृत एक दोहा को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है, १. अपभ्रश साहित्य, पृ० २६८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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