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________________ २० योगसार २. हस्तलिखित 'मि०' प्रति में लिपिकार की असावधानी अथवा जिस प्रति से इसकी प्रतिलिपि की गई है, उसमें मूल एवं वचनिका के पाठ अशुद्ध होने से अनेक पाठों में जो मात्रागत अशुद्धियां रह गई थीं, उनका डॉ० उपाध्ये के संस्करण को आधार मानकर संशोधन किया है। यथा-ऐ को ए, ऊ को उ आदि। इसी प्रकार जो 'च' छूटा था, उसकी पूर्ति की है। यथा-मिछा को मिच्छा ( ६ ), इछा को इच्छा (१३ ), पिछय को णिच्छय (१६) आदि । कहीं-कहीं अनुस्वार को अर्द्धचन्द्रबिन्दु में परिवर्तित किया गया है। ३. 'मि०' प्रति में छूटे पाठों की पूर्ति डॉ० उपाध्ये के संस्करण से कर दी है। उदाहरणार्थ-दोहा अनुक्रमाङ्क ४१ में 'अप्पा'; ४३ में 'देहा', ६७ म 'सुहु', ८६ में 'रमइ' आदि जो पाठ छूट गये थे, उनकी पूर्ति की है। ____४. 'मि०' प्रति के कुछ पाठ डॉ० उपाध्ये द्वारा स्वीकृत पाठों की अपेक्षा अधिक शुद्ध प्रतीत होते हैं। अतः उनका यथास्थान समावेश किया गया है। यथा 'आ०' प्रति में डॉ० उपाध्ये ने दोहा क्रमाङ्क ६ में 'पर जायहि' ( संस्कृत छाया-परं ध्याय ) पाठ रखा है। इसके स्थान पर 'मि०' प्रति में जो 'पर झायहि' पाठ दिया है, वह अधिक शद्ध है। इसी प्रकार 'आ०' प्रति के दोहा क्रमांङ्क ७० में स्वीकृत 'जइ' पाठ की अपेक्षा 'मि०' प्रति का 'जाइ' पाठ और 'आ०' प्रति के दोहा क्रमाङ्क ७५ के 'सो जि हउँ' पाठ की अपेक्षा 'मि०' प्रति का 'सो हि जिउ' पाठ अधिक शुद्ध एवं तर्कसंगत प्रतीत होता है । ५. 'आ०' प्रति में दोहा क्रमाङ्क ८३.८४ एवं ६०-६१ का जो क्रम था, उसको प्रस्तुत संस्करण में 'मि०' प्रति के आधार पर ऊपर-नीचे रखा है । उपर्युक्त मूलपाठ सम्पादन सम्बन्धी विशेषताओं को मूल ग्रन्थ में तत-तत् स्थानों पर देखना चाहिये। उक्त विवरण से प्रतीत होता है कि वचनिकाकार को डॉ० उपाध्ये द्वारा सम्पादन में प्रयुक्त योगसार की हस्तलिखित प्रतियों से भिन्न हस्तलिखित प्रति प्राप्त थी। ६. 'आ०' प्रति के संशोधन में डॉ० ए० एन० उपाध्ये ने चार हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया है और उनसे पाठान्तर ग्रहणकर टिप्पण में उनका समावेश किया है । अतः इस संस्करण में हमने शुद्धपाठ को मूल में स्थान दिया है तथा अशुद्ध पाठ ( पाठान्तर ) को अथवा जिन पाठों की संगति देशभाषा वचनिका से नहीं बैठती है, उन्हें नीचे टिप्पण में दिया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003999
Book TitleYogasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamleshkumar Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1987
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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