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प्रस्तावना
२९ में बैठकर स्वयं अपने हाथों से लिखा है"। अतः उपरोक्त तथ्यों के आधार पर उक्त रचना का, उपलब्ध गुटके के नामकरण के आलोक में “देवीदास-विलास" नाम ही उपयुक्त प्रतीत होता है। (ख) प्रवचनसार
प्रेमी जी द्वारा उल्लिखित कवि की दूसरी रचना “प्रवचनसार" है। यह रचना आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार का हिन्दी पद्यानुवाद है। यह अद्यावधि अप्रकाशित है। इस ग्रन्थ की एक मात्र पाण्डुलिपि जयपुर के तेरहपंथी बड़े मन्दिर में सुरक्षित है। इसकी रचना के सम्बन्ध में कवि ने स्वयं ही स्पष्ट किया है, कि “आचार्य कुन्दकुन्द" ने प्राकृत-भाषा में प्रवचनसार की रचना की। उसकी संस्कृत-टीका अमृतचन्द्र ने लिखी। उन्हीं की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए पाण्डे हेमराज ने उसकी हिन्दी में बालबोध नामकी टीका की रचना की और उसी का अवलोकन करके मैंने भी अपनी भाषा में पद्यों को गूंथकर इस ग्रन्थ की रचना की है।" यथा
"प्रवचनसार या ग्रन्थ जाके करता कुंदकुंद मुनिराज भये प्राकृत के। जाको शब्द कठिन करके संस्कृत कीनौ अमृतचंद में सुधारी महाव्रत के तिनहि की परम्परा सौ पांडे हेमराज ने बालबोध टीका देखि कह्यो सो इम लइके। जाको भेद पाई देवीदास पुनि भास धरयो माखन ते होत जैसे करतार घृत के।
प्रवचन. पद्य., ९५-९६। उक्त ग्रन्थ में मूल विषय-वस्तु को दस अधिकारों में सुनियोजित किया गया है। ग्रन्थ में पद्यों की कुल संख्या ४३४ है। प्रारम्भ में कवि ने वर्तमान तीर्थंकरों की स्तुति, अतीत एवं भविष्य में होने वाले तीर्थंकरों की वन्दना, पंचपरमेष्ठी की स्तुति एवं अपनी विनम्रता को व्यक्त करते हुए, ग्रन्थ में निहित दस अधिकारों की विषय-वस्तु का परिचय दिया है। यथा
"महाग्यान को सुअधिकार सोहे प्रथम ही, अधिकार दूसरौ अतिन्द्री सुख भोग को। ग्यान-तत्व दरसे सामान्य गेय अधिकार, आचरन कौमुदार जती कीथ रोग कौ। . मोख पंथ धारौं सुद्धोपयोगी को अधिकार,
और अधिकार भारी सुभ उपयोग को। देवीदास कहैं मै तो थोरी बुद्धि सौं बखानौ, ग्रन्थ यौं खजानौं जानौ चरनानजोग को।। प्रवचन; पद्य. ३८
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