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प्रस्तावना
६. कृतित्व हम यह पूर्व में ही कह चुके हैं कि महाकवि देवीदास हिन्दी-साहित्य के रीतिकालीन कवि होकर भी भक्त-कवि के रूप में उभर कर सम्मुख आए हैं। कहा जा सकता है कि रीतिकालीन वातावरण में ये एक ऐसे भक्त कवि हैं, जिन्होंने हिन्दीसाहित्य में अपने काव्य-गुणों एवं आध्यात्मिक विषय-वस्तु के निरूपण की दृष्टि से अपनी विशेष पहिचान बनाई है। यद्यपि इस काल में अनेक जैन भक्त कवि हुए हैं किन्तु इस कवि की विशेषता यह है कि उसने घोर आर्थिक एवं पारिवारिक संघर्षों से जूझते हुए भी उनसे कभी हार नहीं मानी और उनके साथ-साथ अपनी लेखनी को भी जीवन्त बनाए रखा। उनकी एक अन्य विशेषता यह है कि वे बुन्देली-भाषा के अकेले हिन्दी जैन-कवि हैं, जिन्होंने उसके माध्यम से उस प्रदेश के श्रमणसंस्कृति के अनुयायियों के लिए विविध विषयक विशाल-साहित्य का प्रणयन तो किया ही, बुन्देली-भाषा को भी एक सशक्त साहित्यिक रूप प्रदान किया।
देवीदास की अन्य एक विशेषता यह भी है कि उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से बुन्देलखण्ड की समकालीन आर्थिक, राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों के भी अनेक संकेत किए है, इस कारण इनका समग्र-साहित्य दर्शन, धर्म, अध्यात्म, आचार, इतिहास, संस्कृति, भूगोल, भाषा-विज्ञान एवं लोक-चित्रण की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में विशेष महत्व रखता है।
यह आश्चर्य का विषय है कि हिन्दी-साहित्य के विकास में महान् अवदान देने वाले इस महाकवि की हिन्दी-साहित्य में कहीं, किसी भी प्रकार की चर्चा उपलब्ध नहीं. जैन इतिहासकारों ने भी क्वचित्, कदाचित् इनका नामोल्लेख अथवा जीवन सम्बन्धी कुछ किंवदन्तियों का उल्लेख करके ही सन्तोष प्राप्त कर लिया, जबकि उसके कृतित्व का सर्वांगीण मूल्यांकन होना चाहिए था। उपलब्ध रचनाएँ
जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है, महाकवि देवीदास ने अनेक रचनाओं का प्रणयन किया है। श्री गणेश वर्णी दि. जैन (शोध) संस्थान, नरिया, वाराणसी के ग्रन्थागार में “देवीदास-विलास" नामका एक गुटका सुरक्षित है, जिसकी अधिकांश रचनाएँ अद्यावधि अप्रकाशित हैं। इन रचनाओं का परिचय आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।
श्रद्धेय पं. नाथूराम जी प्रेमी ने सन् १९१७ में प्रकाशित अपने “हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास' में देवीदास की केवल निम्न कृतियों की चर्चा की है
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