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देवीदास-विलास यहाँ घना जंगल हैं और चोर, लुटेरों का भी भय बना रहता है। अतः यहाँ से कुछ दूरी पर निरापद स्थान है, वहीं रुककर सन्ध्या-वन्दन कर लेंगें। यह कहकर वे सभी तो आगे बढ़ गए किन्तु देवीदास ने उनकी बात नहीं मानी, अपना कपड़े का गट्ठर घोड़े की पीठ से उतार कर उसे एक तरफ रख दिया और वे वहीं सामायिक करने बैठ गए और थोड़ी ही देर में आत्म-चिन्तन में लीन हो गए। इसी बीच कुछ चोर वहाँ आए और भायजी के कपड़े का गट्ठर उठाकर आगे बढ़ गए। लेकिन यह संयोग ही था कि थोड़ी दूर जाने पर उन चोरों के मन में यह विचार आया कि “न जाने यह कौन साधु-पुरुष हैं? जो अपने ध्यान में मग्न है और यहाँ हम उसका माल लेकर भाग रहे हैं, ऐसे सन्त, महात्मा को कष्ट देने से हम महापाप के भागीदार हो जावेंगे। ऐसा सोचकर उन्होंने वह कपड़ा यथास्थान रख दिया। किन्तु आगे जाकर उन्हीं चोरों ने भायजी के उन सभी साथियों को मार-पीट कर उनका पूरा माल छीन लिया। ___यह घटना हमें यह स्मरण दिलाती है कि कोई भी व्यक्ति अपने शान्त-परिणामों एवं अटूट श्रद्धाभक्ति द्वारा दुष्ट-स्वभावी व्यक्तियों का हृदय-परिवर्तन करने में भी सक्षम हो सकता है।
(४) मितव्ययता
एक अन्य घटना के अनुसार कवि देवीदास अपने अध्ययन के क्रम में एक बार उत्तरप्रदेश के किसी नगर में गए और वहाँ १२ महिने तक रहे। प्रवास-काल में वे अपने हाथ से ही भोजन बनाया करते थे। उस समय उन्होंने एक पैसे की लकड़ी में १२ महिने तक भोजन बनाया था। होता यह था कि वे प्रतिदिन एक पैसे की लकड़ी खरीदकर भोजन बनाते थे और भोजनोपरान्त उसका कोयला बुझाकर प्रतिदिन एक सुनार को एक पैसे में बेच दिया करते थे और अगले दिन उसी पैसे से पुनः लकड़ी खरीद लेते थे। यह क्रम १२ मास तक लगातार चलता रहा। __तो, यह थी कवि देवीदास की मितव्ययता की प्रवृत्ति, जो आज के युग में - भी हमें वस्तुओं की उपयोगिता का सन्देश देती है। उनकी यह मितव्ययता केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित नहीं थी, अपितु साहित्य-लेखन में भी उन्होंने शब्दों की मितव्ययता से काम लिया और थोड़े से शब्दों में ही गूढ़ तथा गम्भीर दार्शनिक तत्वों का निरूपण कर दिया। इसका एक निम्न उदाहरण दृष्टव्य है
समदंसन नीर प्रमान कह्यौ तिन्हि कै घट जासु प्रवाह बह्यौ। वधुवालुव कर्म अनादि खगे तसु फूटत नैंकुन बारु लगे। दरसन., २/१४/७
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